Tuesday, December 28, 2010

bhopal news reporter

 मुझे कुछ लोगों के कर्तव्य, अधिकार, इरादे और तात्पर्य ठीक से समझ में नहीं आ रहे। या तो मैं अनाड़ी हूं या जन्मजात मूर्ख, जो ये जटिल खेल समझ नहीं पाता। अगर किसी को समझ में आ जाए तो कृपया ज्ञान देने में संकोच न करे। एक निरीह सा प्रश्न यह है कि प्रणय रॉय, अरुण पुरी, शोभना भरतिया, राघव बहल, विनीत जैन, परेश नाथ और शेखर गुप्ता आदि नीरा राडिया के सवाल पर इतने संदिग्ध रूप से खामोश क्यों हैं कि पूछना पड़े कि भाई साहब/बहन जी, आपकी पॉलिटिक्स क्या हैं?
बेचारा प्रभु चावला तो प्रॉपर्टी डीलर के अंदाज में निपट गया, मगर बरखा रानी और वीर सांघवी की कायरता पर किसी ने अब तक खुल कर सवाल नहीं उठाए। जिन्होंने उठाए उन्होंने बरखा को उन्हीं के स्टूडियों में जा कर सवाल पूछने का अवसर पाया और अपनी गली में थीं इसलिए बरखा शेर हो रही थीं। मांगे जवाब जा रहे थे मगर बरखा रानी धमकियां दे रही थीं।
वीर सांघवी का कॉलम बंद हो गया तो कौन सा तूफान आ गया। हिंदुस्तान टाइम्स में फोकट की यात्राएं कर के वे लोगों को बताते रहते हैं कि कहां मछली अच्छी मिलती हैं और कहां मक्खन से तड़का लगाया जाता हैं। मतलब कुछ तो है कि हिंदुस्तान टाइम्स उनसे नाता तोड़ने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। राजा की बेईमानियों, रेड्डियों की जालसाजियों और येदुयरप्पा के जमीन आवंटनों में सवाल करने वाले हम लोग बरखा दत्त, एम के वेणु, गणपति सुब्रमण्यम, शंकर अय्यर, वीर सांघवी और प्रभु चावला आदि पर और उनके फूहड़ बयानों पर सवाल नहीं करते। सब ने अपने अपने खुदा बना रखे हैं। ये खुदा वे हैं जो नीरा राडिया के सामने नमाज पढ़ते हैं। इनके कुफ्र का किसी को खयाल नहीं है।
और फिर राजदीप सरदेसाई को हम क्यों भूल जाते हैं। आखिर क्या नीरा राडिया ने राजदीप को सात जुलाई 2009 को फोन कर के मुकेश अंबानी के सबसे बड़े चमचे मनोज मोदी से मुलाकात का निमंत्रण नहीं दिया था। बहाना गैस की कीमतें तय करने पर विचार करने का था। यह राजदीप सरदेसाई गैस कब से बेचने लगे? फिर राजदीप सरदेसाई ने अपने चैनल के संयुक्त प्रबंध निदेशक समीर मनचंदा से मुलाकात करवाने की बात क्यों कही? देसाई ने कहा था कि मैं चाहता हूं कि मनोज मोदी टीवी 18 के समीर मनचंदा से मिले क्योंकि समीर और मनोज के बीच कई विषयों पर पहले भी लंबी बातें हो चुकी है। ये लंबी बाते क्या थी, कोई हमें बताएगा? क्या मनचंदा पत्रकार हैं जिन्हें मुकेश अंबानी गैस कीमत मुद्दे पर ज्ञान देना चाहते हैं?
टाइम्स नाउ काफी हमलावर चैनल है। अरनब गोस्वामी वहां जिसको निपटाना हो चुन लेते हैं और निपटा ही लेते हैं। सुरेश कलमाडी उदाहरण है। मगर इकानॉमिक्स टाइम्स के तत्कालीन सीनियर एडिटर एम के वेणु नीरा राडिया के दलाल थे और उन्होंने कहा था कि इकानॉमिक्स टाइम्स पैसा खर्च नहीं करना चाहता और हमेशा ग्राहक तलाशता है। और फिर वेणु का राडिया को यह कहना कि मुकेश अंबानी वाले रिलायंस के लोगों को तुम्हारे आने के भी पहले मैंने कह दिया था कि मुकेश को मीडिया के सामने इतना क्यों ले जाते हो, वे इतने बड़े आदमी हैं और उन्हें मीडिया के सामने हाथ नहीं जोड़ने चाहिए। ये हमारे मीडिया का एक दल्ला बोल रहा है और फिर आगे कह रहा है कि उन लोगों का जवाब है कि अनिल अंबानी कर रहे हैं तो हमें करना पड़ रहा है। तो मैंने उनको कहा कि तुम उल्टा करो और इन साले मीडिया वालों को बता दो कि हमारा मालिक स्पेशल है। मीडिया के इस दल्ले का दूसरा बयान मीडिया को ही गाली दे रहा है। नमक हरामी की हद होती है। फिलहाल एम के वेणु फाइनेंशियल एक्सप्रेस में काम कर रहे हैं और शायद शेखर गुप्ता को भी अपने इस नवरत्न पर कोई शर्म नहीं है। इस अखबार में जो छपता हैं वह नीरा राडिया का नहीं हैं यह आप ऐतबार कर लेंगे? अगर कर लेंगे तो आप धन्य हैं।
राघव बहल टीवी 18 के मैनेंजिग डायरेक्टर है और खुद अपना साम्राज्य खड़ा करने के लिए उनकी बहुत इज्जत होती है। आखिर चार-चार टीवी चैनल उन्होंने ऐसे ही नहीं खड़े कर दिए। मगर मुकेश अंबानी का चमचा मनोज मोदी जब नीरा राडिया से यह कहता है कि मैंने राघव बहल को समझा दिया है कि तुम्हारी कंपनी भ्रष्ट है। अनिल के खिलाफ सच्ची खबर भी नहीं छापते और दावा करते हो कि तुम हमारे लिए काम करोगे। मुझे अपनी खबरों का सोर्स बताओ। मनोज मोदी आगे यह भी कहता है कि मुकेश अंबानी को अटैक करेगा तो मेरा नाम मनोज मोदी हैं। मै छोड़ूंगा नहीं। राघव बहल जिन्होंने अपनी शारीरिक कमजोरी के बावजूद इतना बड़ा व्यापारिक साहस दिखाया है। एक कानूनी नोटिस आने से डर जाते हैं....। इसका विरोध भी नहीं करते...। नीरा राडिया और किसी श्रीनाथ के बीच एक बातचीत है, जिसमें कहा गया है कि सीएनबीसी टीवी 18 पर मुकेश अंबानी के खिलाफ एक खबर चली। नीरा राडिया जवाब देती हैं कि सेबी जांच कर रही हैं और सिद्धार्थ जरावी, जो सीएनबीसी का आर्थिक नीति संपादक हैं, उदयन मुखर्जी जो एंकर हैं और साजिद नाम का एक पत्रकार सब जांच के घेरे में आ गए हैं। ये सब अपनी बीबीयों से शेयर का धंधा करवाते हैं। सेबी की जांच में सब सामने आ गया है। ये भी नीरा राडिया का बयान है कि उदयन मुखर्जी साल में छह करोड़ रुपए सिर्फ इनकम टैक्स में देते हैं और वे पत्रकार हैं। राघव बहल को अपने इन नए पत्रकारों के बारे में क्या कहना है?
इकानॉमिक टाइम्स के कार्यकारी संपादक राहुल जोशी भी नीरा राडिया के आशिकों में से एक हैं। वे नीरा को कहते हुए पाए जाते हैं कि गैस कीमतों के मामले पर अगले दिन आने वाले बंबई हाई कोर्ट के फैसले को कैसे कवर करना है, यह तय किया जा चुका है। फिर सफाई भी देते हैं कि मैंने यह तय नहीं किया हैं। यह मेरी गलती नहीं है। दूसरे शब्दों में इसका मतलब यह है कि मेरी मां, मुझे बख्श दो। राहुल जोशी यह भी कहते हैं कि मैं तो अपनी तरफ से मुकेश की मदद करने की पूरी कोशिश करता हूं।
अरुण पुरी ने तो कम से कम प्रभु चावला को निकाल कर बाहर कर दिया है, मगर उनकी तरफ से भी कोई सफाई नहीं आई कि उनका समूह संपादक टाटाओं और दोनों अंबानियों और बड़े अंबानी की दलाल से रिश्ते बनाए रखता हैं और मुकेश अंबानी को सर्वोच्च न्यायालय में जाने के बारे में और फैसला फिक्स करवाने के बारे में सलाह देने का प्रस्ताव करता है, तो क्या यह एक साफ सुथरे समूह के नाम पर धब्बा नहीं है। प्रभु चावला के जाने के बाद ही सही उसके आचरण के बारे में समूह को कोई सफाई तो देनी चाहिए।
वैसे तो प्रणय रॉय खुद शेयरों की हेरा-फेरी में फंसे हैं लेकिन बहुत से जवाब उन्हें भी देने हैं। एम के वेणु और नीरा राडिया जब 9 जुलाई 2009 को बात कर रहे थे तो वेणु ने नीरा से पूछा था कि क्या मनोज मोदी दिल्ली आए हैं? राडिया ने कहा था कि आए हैं और शाम तक हैं। हम लोग एनडीटीवी के प्रणय रॉय से मिलने जा रहे हैं। हमें प्रणय का सपोर्ट चाहिए। इसको बरखा दत्त और मनोज मोदी के बीच उसी शाम को हुई उस बातचीत से जोड़ना चाहिए, जिसमें मनोज मोदी बरखा रानी को समझा रहे हैं कि तुम जानती हो कि मैं दिल्ली नहीं आता मगर खास तौर पर इस काम के लिए आया हूं। बरखा मनोज से कहती हैं कि इससे हमें काफी मदद मिलेगी मनोज। इसके बाद बरखा का एक वाक्य बीच में कट जाता हैं लेकिन उस अधूरे वाक्य के अर्थ बड़े खतरनाक है। बरखा सिर्फ इतना कह पाती हैं कि तुम इतनी मदद कर रहे हो और मुझे लगता है कि आपके साथ ......... फोन कट जाता है। मगर आपके साथ क्या? बरखा रानी जवाब दें।
नीरा राडिया बहुत लोगों के साथ बातचीत में हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक संजय नारायणन को अनिल अंबानी का आदमी बताती रहती है। वे तो राज्यसभा के सदस्य और भूतपूर्व वित्त सचिव एनके सिंह से भी संजय की शिकायत करती है और एनके सिंह वायदा करते हैं कि वे बात करेंगे। शोभना भरतिया ने संजय नारायणन क्या कोई सफाई मांगी हैं? क्या अपने पाठकों के प्रति शोभना का कोई फर्ज नहीं हैं? वीर सांघवी ने कहा है कि उन्होंने अपनी मर्जी से अपना कॉलम बंद किया है। क्या शोभना भरतिया बताएंगी कि हिंदुस्तान टाइम्स का सबसे लोकप्रिय स्तंभ उनकी अनुमति से बंद हुआ है? क्या उन्होंने वीर सांघवी से नीरा राडिया से उनके रिश्तों के बारे में पूछा है। न पूछा होगा और न पूछेंगी क्योंकि लगता है कि पूरे मीडिया में फिल्म शोले का एक डायलॉग उधार लें तो पाठकों ने हिजड़ों की एक फौज खड़ी कर रखी है।
लेखक आलोक तोमर देश के जाने-माने पत्रकार हैं.

‘मुन्नी बदनाम हुई’ और तीस मार खान का गाना ‘शीला की जवानी’ को पब्लिक डीसेंसी, मोरालिटी, पब्लिक आर्डर के खिलाफ मानते हुए उन्हें सिनेमेटोग्राफी एक्ट के धारा 5(बी)(1) का उल्लंघन होने के आधार पर इन गानों पर तत्काल रोक लगाने की मांग की है.

मैंने दो-तीन दिन पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की है, जिसमे दो फिल्मों- तीस मार खान और दबंग के निर्माता-निर्देशक, सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सेंसर बोर्ड) तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को प्रतिवादी बनाया है. इस याचिका में मैंने दो गानों दबंग का गाना ‘मुन्नी बदनाम हुई’ और तीस मार खान का गाना ‘शीला की जवानी’ को पब्लिक डीसेंसी, मोरालिटी, पब्लिक आर्डर के खिलाफ मानते हुए उन्हें सिनेमेटोग्राफी एक्ट के धारा 5(बी)(1) का उल्लंघन होने के आधार पर इन गानों पर तत्काल रोक लगाने की मांग की है.
साथ ही यह भी कहा कि इन दोनों गानों के परिणामस्वरूप अपराध के कारित होने की भी संभावना रहती है. मैंने यह तथ्य उठाया है कि खास कर के नाम शीला, मुन्नी, मुनिया या ऐसे ही मिलते-जुलते नाम वाली स्कूलों तथा कॉलेजों में जाने वाली लडकियां, दफ्तरों के जाने वाली कामकाजी महिलाएं और यहाँ तक कि घरेलू महिलायें भी इस गाने के कारण गलत रूप से प्रभावित हो रही हैं.
मेरे इस कार्य पर मुझे बहुत सारी टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं मिली हैं जो कई तरह की हैं. कई लोगों ने खुल कर मेरी बात का समर्थन किया और इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए लक्ष्य तक ले जाने की हौसला-आफजाई की. लोगों ने कोटिशः धन्यवाद और आभार प्रकट किये. लोगों के दूर-दूर से फोन आये. उदाहरण के लिए मुंबई से एक सज्जन का फोन आया जिन्होंने मेरे इस कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की और इसमें हर तरह से योगदान देने का आश्वासन दिया. इसी तरह से पटना से एक फोन आया जिसमे मुझे शुक्रिया अदा किया गया था. एक महिला ने साफ़ शब्दों में बताया कि जब मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करती हूँ तो कई लोग जान-बूझ कर यह गाना बजाते हैं और इसका उपयोग कर के लड़कियों के प्रति अश्लील आचरण करते हैं और उन्हें शर्मिंदगी की स्थिति में ला देते हैं. दूसरे व्यक्ति का कहना था कि हमारा समाज ऐसा हो गया है, जिसमे जो चाहे जैसा करे और हम लोग इतने शिथिल प्राणी हो चुके हैं कि हम इनमें किसी भी बात का प्रतिरोध नहीं करते.
इसके उलट मुझे कई ऐसी टिप्पणियां भी मिलीं, जिनमे मुझे बुरा-भला कहने और आलोचना करने से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए इन गानों के प्रति उदार नजरिया अख्तियार करने जैसी बात कही गयी है. एक अच्छे मित्र ने कहा-“इस तरह की बातों में अदालतों का समय जाया करने से कोई लाभ नहीं है. ये गाने इसीलिए हैं क्योंकि इनकी जन-स्वीकार्यता है. एक दूसरे सज्जन हैं जो इससे पहले मेरे जस्टिस काटजू की इलाहाबाद हाई कोर्ट से सम्बंधित टिप्पणी के बारे में इलाहाबाद हाई कोर्ट में किये गए रिट के खारिज होने पर पहले ही कह चुके थे कि आपको जुर्माना नहीं हुआ इसकी खैर मनाएं. अबकी मेरे इस कदम के बारे में जानते ही कहा- “इस बार तो आप पर जुर्माना हो कर ही रहेगा, सभ्यता के ठेकेदार. आपको सिर्फ पब्लिसिटी चाहिए, और कुछ नहीं.”
मैं इस प्रकार के व्यक्तिगत आरोपों के बारे में कुछ अधिक नहीं कह सकती, इसके बात के अलावा कि अपनी पब्लिसिटी हर आदमी चाहता है, यह नैसर्गिक मानवीय स्वभाव है- चाहे आप हों या मैं. फिर यदि मैं इस भावना से प्रभावित हो कर ही सही, यदि कुछ अच्छा काम कर रही हूँ तो मेरी पब्लिसिटी पाने की दुर्भावना और कमजोरी माफ की जानी चाहिए.
रहा मुख्य मुद्दा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी हो और इस सम्बन्ध में क़ानून की बंदिश कितनी हो, तो इस प्रश्न को समझने के लिए हमें किसी भी समाज को उसकी सम्पूर्णता में जानना-समझना होगा. जो मेरी खुद की स्थिति है या जो कई सारे पढ़े-लिखे उच्च-स्तरीय महिलाओं की स्थिति है वह अलग होती है. ये लोग समझदार लोग हैं, रसूखदार भी हैं. इनके सामने शायद कोई इस तरह के गाने बजा कर इनका अपमान नहीं करे, इन पर फब्तियां नहीं कसे, इन्हें नहीं छेड़े. पर उन तमाम गाँव, कस्बों, गली-मोहल्लों में रहने वाली मुन्नी और शीला के बारे में सोचिये जो उतनी पढ़ी-लिखी नहीं हैं, जो उतनी आज़ाद ख़याल नहीं हैं, जो साधारण सोच वाली हैं, जिनके समाज में अभी भी पुरातनपंथ हावी है. वहाँ की वे असहाय महिलायें, बच्चियां, लडकियां वास्तव में इस प्रकार के फूहड़ गानों से प्रभावित भी हो रही हैं और अन्याय का शिकार भी. इस रिट में तो मैंने पाकिस्तान के लाहौर की दो बच्चों की माँ के बारे में लिखा है, जिसे अपनी दुकानदारी का काम मात्र इसीलिए छोड़ देना पड़ा क्योंकि उसका नाम मुन्नी था और उसे पूरे मोहल्ले का हर शरीफ-बदमाश आदमी इसी गाने के बोल गा कर परेशान करता था.
रिट करने के बाद मुझे कई ऐसे दृष्टांत ज्ञात हुए हैं जिनमें इस गाने को ले कर हत्या, बलवा, छेड़खानी आदि तक हो चुके हैं. नोयडा के राजपुरकलां गांव में जमकर बवाल मचा. नामकरण संस्कार के दौरान शीला की जवानी गाने पर डांस कर रहे युवकों और उनके पड़ोसियों में भारी मारपीट हुई. बताया गया है कि पड़ोस में शीला नाम की एक महिला रहती है जिसके परिवार वालों को यह बुरा लग रहा था. कई बार मना किया पर नहीं माने और फिर झगड़ा शुरू हो गया, जिसमे आधा दर्ज़न लोग घायल हो गए. इसी तरह बलिया के बांसडीह रोड थाना क्षेत्र के शंकरपुर गांव में एक बारात में इस गीत पर नशे में धुत पार्टी का दूसरे पक्ष से विवाद हुआ, फायरिंग हुई और करीब दर्जनों राउंड फायरिंग में गोली लगने से दस लोग घायल हो गए. मुंबई के ठाणे की दो बहनों शीला गिरि और मुन्नी गिरि को इन गानों ने अपना नाम बदलने के लिए मजबूर कर दिया है, क्योंकि वे पड़ोसियों और लोगों के भद्दे कमेंट से परेशान हैं. दो बच्चों की मां मुन्नी ने बताया कि जैसे ही वह घर से बाहर निकलती हैं, उन पर इस गाने की आड़ में भद्दे कमेंट किए जाते हैं. अब शीला अपने बेटे को स्कूल छोड़ने तक नहीं जाती हैं. वह कहती हैं कि जब भी मैं स्कूल जाती हूं तो बच्चे 'शीला की जवानी' गाने लगते हैं जिससे वे और उनका बेटा शर्मसार होकर रह जाते हैं. उन्होंने गवर्नमेंट गैजेट ऑफिस में अपना नाम बदलने के लिए अप्लाई किया. ये तो मात्र वे मामले हैं जिनमे बातें छन के ऊपर आई हैं. अंदरखाने हर गली-कूचे में ना जाने ऐसी कितनी घटनाएं हो रही होंगी, कितनी बेचारी शीला और मुन्नी इसका मूक शिकार हो रही होंगी, इसके कारण परेशान होंगी, सताई जा रही होंगी.
यह किस सभ्यता का तकाजा है कि अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के नाम पर आदमी इस हद तक अंधा हो जाए कि उसे दूसरे का कोई भी हित-अहित करने में तनिक भी शर्म नहीं आये. यह अभिव्यक्ति की स्वत्रंता है या व्यापक स्वार्थ-लिप्सा. यह सही है कि मलाइका अरोरा और कटरीना कैफ जैसी सशक्त महिलाओं को कोई कुछ नहीं कहेगा, चाहे वे अर्ध-नग्न घूमें या कुछ भी करें. परसों एक कार्यक्रम में मल्लिका शेरावत की बात सुन रही थी. कह रही थीं- “मेरे पास दिखाने को शरीर है तो दूसरों को क्या ऐतराज़ है,” सच है कि उनके पास शरीर है. शरीर शायद और भी कई उन साधारण घर की महिलाओं के पास भी हो, पर उनकी स्थिति दूसरी है, उनके हालत दूसरे हैं. मलाइका जाती हैं, सुरक्षा घेरे में ठुमका लगाती हैं, पांच करोड़ लिया और चल दीं. उन गरीब और साधारण महिलाओं की सोचिये जो इसका शिकार बनती हैं और चीख तक नहीं पाती. अपनी माँ, बहनों, बेटियों को सोचिये जिनके नाम शीला और मुन्नी हैं और जिन्हें इस गाने के नाम पर शोहदे और मक्कार किस्म के लोग छेड़ रहे हैं और अपनी वहशी निगाहों और गन्दी लिप्सा का शिकार बनाने की कोशिश करते रहते हैं.
इसीलिए यह जरूरी है कि इस तरह से स्वतंत्रता के नाम पर हम अंधे नहीं हो जाएँ और इस तरह के सभी प्रयासों का खुल कर विरोध करें और उन पर रोक लगवाएं. फिर यदि मुझ पर कोई कोर्ट इस काम में जुर्माना भी लगाए तब भी मुझे अफ़सोस नहीं होगा, क्योंकि यह मेरे अंदर की आवाज़ है.
डॉ नूतन ठाकुर
संपादक
पीपल’स फोरम, लखनऊ

हैरी वेरियर एल्विन की आदिवासी पत्नी का निधन, अब वे अपने पति की किताबों में

 . हैरी वेरियर एल्विन की आदिवासी पत्नी का निधन, अब वे अपने पति की किताबों में मिलेंगी : काया के पिंजरे में कैद हंसा सी फडफ़ड़ाती वह पवित्र आत्मा जो यावज्जीवन एक फरेबी फिरंगी लेखक की बेवफाई और जमाने भर की रुसवाई का दंश सहती रहीं, अंतत: अनंत में विलीन हो गईं। मध्यप्रदेश में डिंडोरी जिले के घुर जंगलों में बसे गुमनाम गांव रैतवार की कोसीबाई को उसका प्रारब्ध ही डा. हैरी वारियर एल्विन जैसे महान शोधकर्ता - लेखक तक खींच ले गया था जो बाद में उसके लिए परम छलिया सिद्ध हुए थे।
कैशोर्य काल के उस अत्यल्प साहचर्य के रिश्ते को कोशीबाई ने 22 दिसंबर 2010 को पंचतत्व में विलीन होने तक पूरी शिद्दत से सिरे-माथे ढोया था। विश्व प्रसिद्ध अंगरेज लेखक पति का छल-प्रपंच, दो जवान बेटों के असमय विछोह की पीड़ा और इस सबसे बढ़कर गुरबत व जहालत भरी पहाड़ सी जिंदगी। काले कोस की तरह गुजरे सौ बरस में कोशीबाई ने हर्ष-विषाद, यश-अपयश, उद्वाम प्रेम और अकूत घृणा के ढेरों रंग देखे, उन्हें भोगा और सहा। आये दिन मीडिया उस पर रोचक समाचार कथाएं रचा करता था पर वह उन्हें पढऩा नहीं जानती थी। खुद पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्में भी वह इसलिए नहीं देख सकती थी क्योंकि उसने लंबे जीवन में न छोटा पर्दा देखा था, न बड़ा पर्दा। बावजूद इसके अपने आसपास के गांवों में वह कितनी पूजित थीं, इसका अंदाजा उनकी शवयात्रा में शामिल सैकड़ों आदिवासियों को पुरनम आंखों में तैरते श्रद्धाभाव को देखकर लगाया जा सकता था। शोकाकुल ग्रामीणों ने स्वयं स्फूर्त तरीके से स्कूल बंद रखकर उन्हें अपनी  आदरांजलि दी।
डिण्डौरी जिले के करंजिया विकासखण्ड के ग्राम रैतवार की आदिवासी महिला कोसी बाई सुप्रसिद्ध लेखक डॉ. हैरी वारियर के सम्पर्क में सन् १९२० के लगभग तब आयी थी जब वे देश की आदिम जातियों के रहन-सहन, रीति-रिवाज को बिल्कुल नजदीक से देखने व अध्ययन करने इस इलाके में पहुंचे थे। तब कोई तेरह बरस की  अनपढ़ भोली-भाली आदिवासी बाला से उन्होंने ने आदिवासी रीति-रिवाजों के साथ विवाह किया और पास के ग्राम पाटनगढ़ में अपना अध्ययन एवं शोधकेन्द्र स्थापित कर शोध में जुट गये। आदिवासियों के रहन-सहन, उनके अंध विश्वास, परंपराओं और दैनिक क्रियाकलापों पर आधारित कुल २६ पुस्तकों का सृजन वारियर एल्विन ने किया था । यह पुस्तकें विश्व में प्रसिद्ध हुयी। उनके शोध कार्यो के प्रशंसकों में  तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी, आचार्य कृपलानी और  जमनालाल बजाज जैसी विभूतियां शामिल थी।   पाटनगढ़ में उन्होने एक झोपड़ी में अपना निवास स्थान बनाया और लालटेन की रोशनी में पुस्तकों को लेखन कार्य किया तथा कुष्ठ रोगियों के इलाज के लिये अस्पताल खोला, शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये स्कूल खोले।
डॉ. एल्विन शीघ्र बड़े भैया के नाम से आदिवासियों के बीच में प्रख्यात हो गये। सबसे  दुखद बात यह है कि इतना सब करने के बाद अपढ़ अज्ञानी कोसी बाई से शादी रचाने वाले  वारियर एल्विन अपना शोध कार्य पूर्ण कर दिल्ली  गये तो फिर लौटे ही नहीं। बाद में मान-सम्मान से लदे वारियर एल्विन को केन्द्र सरकार ने नागालैण्ड राज्य का राज्यपाल नियुक्त किया। आदिवासी पत्नि को छोड़कर जाने के बाद उन्होने कभी पिछे मुड़कर देखा नहीं और न ही उसकी कोई मदद की। कोसी बाई के द्वारा सरकार को अपनी ओर से इस दुखद घटना की जानकारी देने के बाद केन्द्र सरकार के द्वारा  उसे प्रतिमाह 5 सौ बाद में 7 सौ फिर 8 सौ रूपये और वर्तमान समय में एक हजार रूपये की आर्थिक सहायता पेंशन के रूप में प्रदान कर दी थी। कोसी बाई की शादी के बाद डॉ. एल्विन से दो पुत्र हुये, इनमें से एक का नाम जवाहर लाल और दूसरे का नाम विजय एल्विन रखा गया। उनके दोनों पुत्रों की मृत्यु असमय हो गयी और उनकी दोनों पुत्रवधुएं ५५ वर्षीय फूलमती एवं ४५ वर्षीय शांति बाई कोसी बाई के ऊपर आश्रित रही। विधवा शांति बाई के दो पुत्र २५ वर्षीय प्रमोद, २१ वर्षीय अरूण तथा एक २६ वर्षीय पुत्री आकृति हैं।
कोसी बाई की अंतिम यात्रा

कोसी के पार्थिव देह को उनके पोते प्रमोद ने ही मुखाग्रि देकर उसका दाह संस्कार किया। बताते हैं कि कोसी बाई को छोड़कर डॉ. एल्विन ने दो अन्य आदिवासी महिलाओं से भी शादी रचाई और बाद में कोसी की तरह उन्हें भी बेसहारा छोड़कर वे चले गये थे।  उन सभी आदिवासी महिलाओं ने अपने जीवन के शेष दिन गरीबी, बदहाली में व्यतीत किये। कोसी बाई के बारे में जानकारी लेने के लिये उनके गांव तक देश के जाने-माने पत्रकार एवं मीडियाकर्मी अक्सर पहुंचा करते थे। ऐसे ही साक्षात्कारों के दौरान कोसी बाई ने अपनी अतंव्र्यथा प्रकट करते हुए कहा था कि डॉ. एल्विन ने उनके एवं उनके परिवार के साथ एक क्रूर मजाक और धोखा किया है। आदिवासी समाज की संस्कृति पर शोध कार्य करते हुये उन्होने बहुत सारे अश्लील फोटो खींचे। अपना शोध कार्य पूर्ण करने के बाद देश व विदेश में नाम तो कमाया परन्तु उनकी जिंदगी को नर्क बना दिया। आज भी पाटनगढ़ के शोध संस्थान केन्द्र में डॉ. एल्विन द्वारा आदिवासी पुरूष एवं महिलाओं की मिट्टी द्वारा निर्मित अधिकांशत: नग्न अवस्था की कलाकृतियां संग्रहालय में संजोकर रखी गयी हैं। मुंबई एवं जबलपुर से जाने माने सोमदत्त शास्त्रीमीडियाकर्मी नागरथ ने कोसी बाई के जीवन वृत्तांत पर एक डाक्यूमेन्ट्री फिल्म का निर्माण किया था। अब कोसी बाई वारियर एल्विन के किताबों की पात्र बनकर रह गई हैं।
लेखक सोमदत्त शास्त्री कई वर्षों से मध्य प्रदेश - छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता में सक्रिय हैं. वे 25 वर्षों से भोपाल में दैनिक समाचार पत्रों में जिम्मेदार पदों पर रहने के अतिरिक्त दैनिक भास्कर के भोपाल संस्करण में न्यूज कोआर्डिनेटर, सिटी एडीटर के रूप में काम कर चुके हैं. वे अब भी भास्कर समूह से जुडे़ हैं.
 

वेब पत्रकारिता या न्यू मीडिया ही आगामी दिनों की पत्रकारिता है

न्यू मीडिया कर रहा सच्ची पत्रकारिता - राजीव सिंह : वाराणसी। वेब पत्रकारिता या न्यू मीडिया ही आगामी दिनों की पत्रकारिता है क्योंकि इस ओर आज के दौर में लोगों का रूझान तेजी से बढ़ रहा है। इस नयी पत्रकारिता में सच का बोलबाला समझ में आता है। जहां अभी तक न तो अपनी टीआरपी बढ़ाने की जरूरत समझी जा रही है और न ही प्रिंट मीडिया की तरह विज्ञापन के लिए किसी के पक्ष में वन साइडेड होकर लिखा जा रहा है।
इस आशय के विचार शनिवार को चंद्रकुमार मीडिया फाउंडेशन एवं हिंदी विभाग महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ‘सच और पत्रकारिता’ विषयक संगोष्ठी में वक्ताओं ने व्यक्त किए। संगोष्ठी की शुरूआत में आयोजक जागरण इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट एंड मास कम्युनिकेशन, नोएडा की ओर से राजीव सिंह ने विषय की स्थापना करते हुए कहा कि आज के दौर में पत्रकारिता से जुड़े लोग सच से किनारा करते जा रहे हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया अगर अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करता है तो हो-हल्ला होने पर पुनः अपनी खबरों का खंडन स्वयं कर देता है।
यही काम प्रिंट मीडिया के लोग अपना विज्ञापन बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। यह कार्य प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के लिए कहीं से भी शुभ संकेत नहीं है। श्री सिंह ने दो-तीन दिन पहले दो अखबारों के दफ्तरों के ठीक सामने हुई एक घटना का हवाला दिया जिसमें आईजी ने दो वाहन सवारों को मात्र इसलिए लाठियों से पीट दिया कि उसके वाहन से आईजी के वाहन को मामूली धक्का लग गया। इस घटना को सैकड़ों मीडियाकर्मियों ने अपनी आखों से देखा लेकिन इस सच को किसी ने उजागर करने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह भी पत्रकारिता का एक सच रहा।
राजीव सिंह ने हिंदुस्तान वाराणसी का अपरोक्ष रूप से जिक्र करते हुए कहा कि यह वही अखबार है जिसने कभी बनारस पुलिस के आला अफसर रह चुके सूर्यकुमार शुक्ल की पत्नी डाली शुक्ला के आत्महत्या प्रकरण को पूरी शिद्दत से उठाया था। सूर्यकुमार शुक्ल ने काफी दबाव बनाया और उस समय समूह संपादक पद पर अजय उपाध्याय हुआ करते थे जो आज की संगोष्ठी के मुख्य वक्ता हैं। उनपर भी शायद दबाव पड़ा होगा पर सूर्यकुमार शुक्ल की खबर पूरी शिद्दत से छह-छह कालम में छपती रही। इसका परिणाम यह रहा कि उस समय यही अखबार बनारस के अखबारों में नबर वन हो गया था। आज वही अखबार (हिंदुस्तान) है जो आईजी द्वारा निर्दोष और निरीह युवकों को पीट-पीट कर अधमरा करने की खबर को अपनी आंखों से देखकर भी नहीं छापता है। ऐसी घटनाएं साबित करती हैं कि पत्रकारिता और समाचारपत्र कितनी सत्यता अपने पाठकों को परोसते हैं।
उन्होंने उम्मीद जताई कि इस दौर में भी कुछ पत्र और पत्रकार हैं जो अपना सब कुछ गंवाकर भी सच की मुहिम को जिंदा रखने की कोशिश में लगे हैं। इस क्रम में उन्होंने वेबसाइट ‘पूर्वांचल दीप डाट काम’, ‘भड़ास4मीडिया’ और ‘जनसत्ता एक्सप्रेस डाट नेट’ का जिक्र किया। जिन्होंने इस सच को जनता के सामने लाने की हिम्मत दिखाई। काशी विद्यापीठ जनसंचार विभागाध्यक्ष अनिल उपाध्याय ने कहा कि पत्रकारिता पहले मिशन थी अब प्रोफेशन और कमिशन के सहारे चल रही है। काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष संजय अस्थाना ने कहा कि कैसे कोई सच सामने आ सकता है जब प्रबंधतंत्र ही पत्रकार को नियुक्त कर रहा है। यह वही प्रबंधतंत्र है जिसे पत्रकारिता का ककहरा भी ज्ञात नहीं है।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व विधि संकाय प्रमुख प्रो. एम. पी. सिंह ने कहा कि भारतीय संविधान में कार्यपालिका, न्याय पालिका और व्यवस्थापिका यही तीन खंभे बताए गए हैं। चौथे खंभे की बात खुद मीडिया ने ही पैदा की है। अब अगर तीन खंभे हिलडुल रहे हैं तो चौथे खंभे का हिलना डुलना भी स्वाभाविक है। इस लिहाज से हम वर्तमान मीडिया को भी पाक साफ नहीं कह सकते।
संगोष्ठी के मुख्य वक्ता अमर उजाला के सलाहकार संपादक अजय उपाध्याय ने कहा कि पत्रकारों को मुगालता हो गया है कि वह मीडिया हो गया है। पत्रकारिता एक रूप है उस रूप में कितना सच छिपा है इसे समझना होगा। और जहां तक समझने की बात है समाचार सिर्फ एक घटना को सिग्निफाई करती है। संकेत मिलने लग गए हैं कि मीडिया तंत्र पर एक बार फिर सच्ची पत्रकारिता हावी होगी। पत्रकारों की हैसियत बढ़ेगी और इसमें स्किल व इमोशंस का प्राबल्य प्रकट होगा। उन्होंने ‘डिकन्स्ट्रक्शन’ शब्द का जिक्र करते हुए कहा कि पर्दे के पीछे का सच ही असली खबरों या ‘डिकन्स्ट्रक्शन’ के रूप में सामने आएगा। अध्यक्षता करते हुए काशी विद्यापीठ मानविकी संकाय के संकायप्रमुख प्रो. अजीज हैदर ने उपस्थित लोगों के प्रति आभार जताते हुए अपने विचार इन पंक्तियों में पेश किए-
देके जब झूठी खबर वो कभी धर जाते हैं,
पड़ती है मार कभी इतनी कि मर जाते हैं,
झूठ अखबार का वो हैं जो बदल देता है रूख,
इससे मासूम पे भी जुल्म गुजर जाते हैं,
छापो तुम सच्ची खबर हो अगर अखबार नवीस
बात झूठी जो हुई लोग बिफर जाते हैं,
आज इस गोष्ठी में कह दो अजीजे खुशखू
सच्ची खबरों के करीं अहले नजर आते हैं।
संगोष्ठी में प्रो. दीपक मल्लिक, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी डा. विश्वनाथ पांडेय, काशी पत्रकार संघ के महामंत्री कृष्णदेव नारायण राय, जिला कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव और हाल ही में कांग्रेस से जुड़े धर्मेंद्र सिंह ने भी विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी में राघवेंद्र चढ्ढा, रामप्रकाश ओझा, योगेश कुमार गुप्त पप्पू, डा. श्रद्धानंद, डा. तीर विजय सिंह आदि मौजूद थे। जबकि बांटे गए इन्विटेशन कार्ड पर छपे निवेदकों के नाम में से आनंद चंदोला, जगत नारायण शर्मा, डा. दयानंद, विकास पाठक आदि संगोष्ठी खत्म होने तक दिखाई नहीं पड़े।

मीडिया के एक बदनुमा दाग को सामने ला दिया है।

नीरा राडिया प्रकरण ने भारतीय मीडिया की चूलें हिला दी है। मीडिया के शिखर पर बैठे मठाधीशों की भागीदारी ने मीडिया के एक बदनुमा दाग को सामने ला दिया है। भारतीय मीडिया में नीरा राडिया प्रकरण एक मिसाल के तौर पर है। इसने मीडिया के सफेदपोशों को नंगा कर दिया है। जनप्रहरी, लोकप्रहरी के सवालों के घेरे में हैं। मीडिया के लिए मिसाल बने बड़े जनाब, आज बहुत छोटे और ओछे नजर आ रहे हैं। उनके चेहरे पर लगा मुखौटा हट चुका है। युवा पत्रकारिता के लिए आर्दश माने जाने वाले कथित पत्रकारों ने अपने निजी फायदे के लिए मीडिया को कटघरे में खड़ा कर दिया है।
मुद्दे को खुद मीडिया ने ही सामने लाकर बहस की शुरूआत की है। हालांकि यह पहला मौका नहीं है कि मीडिया में घुसते भ्रष्टचार पर सवाल उठा हों! मीडिया को मिशन समझने वाले दबी जुबां से स्वीकारते हैं कि नीरा राडिया प्रकरण ने मीडिया के अंदर के उच्च स्तरीय कथित भ्रष्टाचार को सामने ला दिया है और मीडया की पोल खोल दी है। हालांकि, अक्सर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन छोटे स्तर पर। छोटे-बडे़ शहरों, जिलों एवं कस्बों में मीडिया की चाकरी बिना किसी अच्छे मासिक तनख्वाह पर काम करने वाले पत्रकारों पर हमेशा से पैसे लेकर खबर छापने या फिर खबर के नाम पर दलाली के आरोप लगते रहते हैं।
खुले आम कहा जाता है कि पत्रकरों को खिलाओ-पिलाओ-कुछ थमाओ और खबर छपवाओ। मीडिया की गोष्ठियों में, मीडिया के दिग्गज गला फाड़ कर, मीडिया में दलाली करने वाले या खबर के नाम पर पैसा उगाही करने वाले पत्रकारों पर हल्ला बोलते रहते हैं, लेकिन आज हल्ला बोलने वाले मीडिया के ही दिग्गज खुद ही दलाली करते, भ्रष्टाचार में हिचकोले खाते, मीडिया के नाम पर अपनी दुकान चमकाते, पकड़े गये हैं।
स्वभाविक है, हो हल्ला तो होगा ही? नीरा राडिया, विकीलिक्स, पेड न्यूज, सीडी काण्ड, स्टिंग के नाम पर ब्लैकमेल सहित कई ऐसे मामले पड़े हैं, जिसने मीडिया को बेहद ही अविश्‍वासी नजरिये से देखने पर मजबूर कर दिया है। ये मामले इतने दबंग हैं कि मीडिया की दबंगई भी काम नहीं आ रही है। मीडिया की दलाली करने वाले मीडिया के अक्टोपसी संस्कृति वालों को जवाब सूझ नहीं रहा।
प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोषी ने जब मीडिया के अंदर पैसे लेकर खबर छापने यानी पेड न्यूज की खिलाफत करनी शुरू की थी तो मीडिया दो खेमें में बंट गयी। आरोप-प्रत्यारोप की गूंज सुनाई पड़ने लगी। मीडिया के अंदर की इस खबर से जनता पहली बार रू-ब-रू हुई। मीडिया अविश्‍वास के दायरे में आया। देश भर में घूम-घूम कर प्रभाष जोषी ने पत्रकारिता के नाम पर दलाली करने और खबर को बेचने वालों के खिलाफ झंडा उठाया था। पत्रकारों का एक तबका पेड न्यूज के खिलाफ गोलबंद हुआ तो दूसरी ओर मीडिया हाउसों के मालिकों के हां-में-हां मिलाते पत्रकार, विरोधियों पर हल्ला बोलने से नहीं चूके। खैर, यह उनकी मजबूरी रही होगी, कहीं हाथ से नौकरी न चली जाये?
तेजी से मीडिया के बदलते हालातों के बीच पत्रकारिता के एथिक्स और मापदण्डों पर बात करना बेमानी-सी प्रतीत होने लगी है। लोकतंत्र पर नजर रखने वाला मीडिया भ्रष्टाचार के जबड़े में है। हालांकि, इसे पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि मीडिया की आड़ में दलाली करने एवं खबर को बेचने जैसे भ्रष्ट तरीके के खिलाफ मीडिया ने ही सवाल उठाये गए हैं। प्रभाष जोषी ने जिस खतरे से अगाह किया था, वह साफ दिखने लगा है। और इस बार का मामला ऊंचाई वालों का है। मीडिया को सत्ता पक्ष के लिए कंट्रोल करने वालों के खिलाफ है। निशाने पर जिले और कस्बे में पत्रकारिता करने वाले पत्रकार नहीं हैं, जो एक खबर छपने पर दस रूपये पाते हैं। मामला मीडिया को कंट्रोल करने वालों से जुड़ा है।
यकीनी तौर पर भारतीय गणतंत्र के सामने मौजूदा भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर है। ऐसे में गणतंत्र के प्रहरी मीडिया का भ्रष्टाचार के आगोश में आ जाने पर विषय चिंतनीय प्रतीत होता है। सवाल भ्रष्ट होते पत्र और पत्रकारों का है और यह छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक है। हालांकि, छोटे स्तर के पत्रकारों के ऊपर अक्सर भ्रष्ट होने का आरोप मढ़ दिया जाता है। ऊपर से नसीहतें भी दी जाती रही है कि पत्रकारिता करनी है तो मिशन के तहत काम करो। दलाली करनी है, तो पत्रकारिता छोड़ कोई और काम करों..? मीडिया के अंदर भ्रष्टाचार के घुसपैठ पर भले ही आज हो हल्ला हो जाये, यह कोई नयी बात नहीं है। पहले निचले स्तर पर नजर डालना होगा। जिलों-कस्बों में दिन-रात कार्य करने वाले पत्रकार इसकी चपेट में आते हैं, लेकिन सभी नहीं। अभी भी ऐसे पत्रकार हैं, जो संवाददाता सम्मेलनों में खाना क्या, गिफ्ट तक नहीं लेते हैं। संवाददाता सम्मेलन कवर किया और चल दिये। वहीं कई पत्रकार खाना और गिफ्ट के लिए हंगामा मचाते नजर आते हैं। पिछले कुछेक वर्षों में मीडिया की दुकानदारी जिस तरह से खुली, वह अब कहानी नहीं हकीकत बन चुकी है। पैसे लेकर खबर छापने के मसले पर, पूंजीपतियों के साथ मीडिया हाउसों का वैचारिक मजबूत दीवारें ढहीं।
वहीं देखें, तो छोटे स्तर पर पत्रकारों के भ्रष्ट होने के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण का आता है। छोटे और बड़े मीडिया हाउसों में 15 सौ रूपये के मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। उपर से प्रबंधन की मर्जी, जब जी चाहे नौकरी पर रखे या निकाल दे। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह है। वेतन के मामले में कलम के सिपाहियों का हाल, सरकारी आदेशपालों से भी बुरा है। ऐसे में यह चिंतनीय विषय है कि एक जिले, कस्बा या ब्लाक का पत्रकार अपनी जिंदगी पानी और हवा पी कर तो नहीं गुजारेगा? लाजमी है कि खबर की दलाली करेगा? वहीं पर कई छोटे-मंझोले मीडिया हाउसों में कार्यरत पत्रकारों को तो कभी निश्चित तारीख पर तनख्वाह तक नहीं मिलती है।
सेंटीमीटर या कालम के हिसाब से भुगतान पर काम करने वाले पत्रकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है? उपर से मीडिया हाउस का विज्ञापन लाने और अखबार की बिक्री को बढ़ाने का दबाव। पत्रकारों को भ्रष्ट बनाने में बड़े समाचार पत्र समूह भी शामिल हैं। एक स्ट्रिंगर को प्रति समाचार 10 रु. देते हैं, चाहे खबर एक कालम की हो या चार कालमों की। सुपर स्ट्रिंगर को प्रति माह दो से तीन हजार पर रखा जाता है। छोटे मंझोले समाचार पत्र तो, कस्बा और छोटे जगहों पर कार्यरत पत्रकारों को एक पैसा भुगतान तक नहीं करते। हां उनके समाचार जरूर छप जाते हैं। ऐसे में उन पत्रकारों का आर्थिक शोषण और साथ ही साथ उन्हें विज्ञापन लाने को कहा जाता है, जिस पर कमीशन दिया जाता है। जबकि अखबार के मुख्य कार्यालयों में कार्यरत स्ट्रिंगर और सुपर स्ट्रिंगर को तीन हजार से 14 हजार रूपये प्रतिमाह दिये जाते हैं। संपादक/प्रबंधक तनख्वाह तय करते हैं। अमूमन हर अखबार, कस्बा या छोटे शहरों में किसी को भी अपना प्रतिनिधि रख लेते हैं, उसे खबर के लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता है। बल्कि वह जो विज्ञापन लाता है, उस पर उसे कमीशन दिया जाता है। अखबार का संपादक/प्रबंधक जानते हैं कि वह बेगार पत्रकार अखबार के नाम पर अपनी दुकान चलायेगा। जो उसकी मजबूरी बन जाती है। आखिर दिन भर अखबार के लिये बेगार करेगा तो खायेगा क्या? हालात यह है कि पैसा मिले या न मिले किसी मीडिया हाउस से जुड़ने के लिए पत्रकारों की लम्बी कतार है। बिना पैसे और विज्ञापन के कमीशन पर काम करने वाले पत्रकार मौजूद हैं? इसके पीछे के कारण को मीडिया में सब जानते है लेकिन इस परिपाटी को खत्म करने के लिए किसी भी स्तर पर प्रयास नहीं दिखता।
आरोप छोटे स्तर तक ही नहीं है। राजधानी के बड़े पत्रकार भी भ्रष्टाचार के घेरे में हैं। सत्ता के गलियारे में वे दलाली करते देखे जा सकते हैं, मीडिया हाउस के मालिकों या अपने निजी कार्यों के लिए। ऐसे पत्रकार, पत्रकारों के गलियारे में फ्रॉड और दलाल के रूप में पहचाने जाते हैं। कमोबेश, बड़े स्तर यानी मीडिया का हब यानी देश की राजधानी दिल्ली में भी राष्ट्रीय स्तर पर यह सब कायम है। जाहिर है, राष्ट्रीय स्तर के पत्रकरों का स्तर भी, राष्ट्रीय स्तर का होगा! देश की राजनीति को कंट्रोल करने वाले तथाकथित ये पत्रकार, आज अपनी दुकानदारी से मीडिया हाउस के मालिक तक बन चुके हैं।
छोटे स्तर पर कथित भ्रष्ट मीडिया को तो स्वीकारने के पीछे, पत्रकारों का आर्थिक शोषण सबसे बड़ा कारण समझ में आता है, जिसे एक हद तक मजबूरी का नाम दिया जा सकता है। लेकिन दिन के उजाले में पत्रकारिता के स्तंभ माने जाने वाले तथाकथित पत्रकार, रात के अंधेरे में दलाली का जो गुल खिलाते हैं उससे पत्रकारिता शर्मसार हुई है। इन तथाकथित पत्रकरों के समक्ष जिलों व कस्बों के पत्रकारों जैसा आर्थिक अभाव नहीं रहता। लक्ज़री गाड़ी में घूमना, हवाई यात्रा का मजा लेना और कॉरपोरेट जगत में उठना-बैठना इनके दैनिक कार्यो में शामिल होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि मीडिया की आड़ में सुविधाभोगी पत्रकार आखिर दलाली क्यों करते है..? कहीं सत्ता, पॉवर या फिर, ज्यादा से ज्यादा धन की लालसा तो नहीं?
भ्रष्टाचार में फंसे बडे़ पत्रकारों के नाम आने से मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठ खड़ा हुआ है। शर्मसार मीडिया को इस झटके से उबरने में समय लगेगा। धर्मवीर भारती, रधुवीर सहाय, एसपी सिंह, उदयन शर्मा सरीखे पत्रकारों की पीढ़ी ने अपने खून पसीने से मीडिया को एक आधार दिया था, जो भारतीय पत्रकारिता के स्तंभ बने और जो अपने तेवर से जाने जाते हैं। जन संचार के शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले पत्रकारिता के छात्रों के लिए आर्दश के रूप में जाने जाते हैं। इन नामों में कई नाम ऐसे भी हैं, जो आज पत्रकारिता के क्षेत्र में स्तंभ के रूप जाने जाते हैं। युवा पत्रकारों के लिए आर्दश हैं, लेकिन राडिया प्रकरण के घेरे में आने से पत्रकारिता के छात्रों को धक्का तो लगा ही, साथ ही जनमानस के पटल पर भी घात हुआ है। मीडिया के उपर दाग लग चुका है। सवाल है कैसे छूटेगा यह...?
लेखक संजय कुमार वरिष्‍ठ पत्रकार हैं तथा कई पत्र-पत्रिकाओं में काम कर चुके हैं. फिलहाल वे आकाशवाणी पटना में संमाचार संपादक हैं. 
 

प्रो. सिंह का नाम ढूंढे़ नहीं नजर नहीं आता है।

विश्व का सबसे पढ़ा जाने वाला अखबार होने का दावा करने वाले दैनिक जागरण की पत्रकारिता का एक नया सच सामने आया है। 26 दिसंबर 2010 का अंक देखिए। काशी विद्यापीठ में 25 दिसंबर को एक महत्वपूर्ण गोष्ठी हुई थी। इस गोष्ठी को काशी विद्यापीठ के मानविकी संकाय में चंद्रकुमार मीडिया फाउंडेशन की ओर से आयोजित किया गया था, जिसका विषय था-"सच और पत्रकारिता।'' बाकी सभी अखबारों और वेबपोर्टलों ने जहां फोटो सहित जबर्दस्त कवरेज दिया। जागरण ने इसे छोटे से सिंगल कालम में पेज 6 पर बिना किसी फोटो के निपटा दिया। जबकि इस संगोष्ठी में जागरण के समाचार संपादक राघवेंद्र चढ्ढा, वरिष्ठ रिपोर्टर नागेंद्र पाठक और फोटोग्राफर स्वयं मौजूद थे।
इस समाचार में बहुत खोजने पर भी एक प्रमुख वक्ता का नाम नहीं लिखा मिला। वह नाम था प्रो. एमपी सिंह का। प्रो. सिंह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के विधि संकाय के संकाय प्रमुख जैसे महत्वपूर्ण पद पर काबिज रहे हैं। और, बनारस के विधिवेत्ताओं में एक बड़ा नाम हैं। पूरे समाचार में कहीं भी प्रो. सिंह का नाम ढूंढे़ नहीं नजर नहीं आता है। जबकि सर्वाधिक बढ़िया, आकर्षक, चुटीला और सारगर्भित भाषण प्रो. सिंह का था। इस समाचार को इतना छोटा छापने और प्रो. सिंह का नाम न देने के पीछे की भी एक सच है।
दरअसल प्रो. सिंह ने एक बार कोई एक लेख कई बार मांगने के बाद जागरण वाराणसी को दिया था। उसमें उनका खुद का हस्ताक्षर तो था ही उसमें दो पैरे में सुप्रीम कोर्ट पर कुछ बातें लिखी गयी थी। जब लेख छपा तो उसमें वे दोनों महत्वपूर्ण पैराग्राफ पूरी तरह से उड़ा दिए गए थे। स्वयं प्रो. सिंह के शब्दों में ये दो पैराग्राफ काटने पर जागरण ने फोन से उनसे माफी भी मांग ली थी। प्रो. सिंह ने संगोष्ठी में बताया कि मेरे द्वारा हस्ताक्षरित लेख होने के बावजूद वे दो महत्वूपर्ण पैरा लेख में से उड़ा दिये गये थे।
संगोष्ठी में प्रो. सिंह आगे कहते रहे-‘जागरण के स्थानीय संपादक वीरेंद्र कुमार बहुत बड़े पत्रकार हो गए हैं।’ बस यही वह लाइन है जिससे चिढ़कर प्रो. सिंह को पूरी खबर से न सिर्फ आउट कर दिया गया, बल्कि महज कुछ ही लाइनों में पूरी खबर को निपटा दिया गया, जिसके मुख्य वक्ता अजय उपाध्याय थे और जो स्वयं जागरण के राजनीतिक संपादक जैसे महत्वपूर्ण पद पर काम कर चुके हैं, जिस पर आज कल प्रशांत मिश्र काबिज हैं। यहां बता दें कि वीरेन्द्र कुमार न सिर्फ जागरण के मालिक हैं बल्कि दैनिक जागरण के स्थानीय संपादक के रूप में उनका नाम भी छपता है। जागरण के बच्चा अखबार आई नेक्स्ट में एक लाइन खबर नहीं छपी, जिसके वीरेंद्र कुमार मुद्रक और प्रकाशक हैं। यही है दैनिक जागरण की पत्रकारिता का सच। जो सच और पत्रकारिता शीर्षक संगोष्ठी से उजागर हुई।
अजय कृष्ण त्रिपाठी विगत तीन दशको से पत्रकारिता से जुड़े हैं। इन तीन दशकों में लगभग डेढ़-दो दशक गाजीपुर में रहते हुए आज, अमर उजाला, हिंदुस्तान के ब्यूरो चीफ रहे। कुछ वर्षों तक दैनिक जागरण से भी जुड़े रहे। प्रिंट के साथ ही इलेक्ट्रानिक चैनलों के लिए भी प्रोग्राम बनाते रहे। संप्रति वाराणसी में रहते हुए स्वतंत्र लेखन के माध्यम से काव्य और साहित्य सेवा के साथ ही पूर्वांचल दीप साप्ताहिक समाचार पत्र और पूर्वांचल दीप डाट काम से सम्बद्ध

इस दुनिया का रंग देखके सबने बदली चाल मियाँ

उज्जैन में एक होटल के लॉन में कुछ लमहे सुकून के शेयर करते हुए नेशनल अवार्ड से सम्मानित थ्री ईडिएट फेम गीतकार स्वानंद किरकिरे, टीवी ऐंकर गायत्री शर्मा (इंदौर) और शायर देवमणि पाण्डेय
इस दुनिया का रंग देखके सबने बदली चाल मियाँ
तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है क्या बतलाएं हाल मियाँ
जिसमें झांको उसी आंख में
उज्जैन में एक होटल के लॉन में कुछ लमहे सुकून के शेयर करते हुए नेशनल अवार्ड से सम्मानित थ्री ईडिएट फेम गीतकार स्वानंद किरकिरे, टीवी ऐंकर गायत्री शर्मा (इंदौर) और शायर देवमणि पाण्डेय


तैर रहा दुख का बादल

फिर भी यूँ हँसते हैं नेता

जैसे हँसते हैं पागल

ऊपर से ये ख़ुश लगते हैं अंदर हैं बेहाल मियाँ
तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है क्या बतलाएं हाल मियाँ
बरसों बीते मगर अभी तक

दूर हुई न बदहाली

कैसे फूल खिलें ख़ुशियों के

सबकी हैं जे बें ख़ाली
मुफ़्त में लेकिन सभी निकम्मे उड़ा रहे हैं माल मियाँ
तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है क्या बतलाएं हाल मियाँ
देखके टीवी पर विज्ञापन

रुठ गई बिटिया बबली

अपना चेहरा चमकाने को

मांगे फेयर एन लवली
नया दौर मां - बाप की ख़ातिर है जी का जंजाल मियाँ
तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है क्या बतलाएं हाल मियाँ
फर्स्ट क्लास ग्रेजुएट है राजू

मगर नौकरी नहीं मिली

मजबूरी में पेट की ख़ातिर

बेच रहा है मूंगफली
कमोबेश सब पढ़े लिखों का इक जैसा अहवाल मियाँ
तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है क्या बतलाएं हाल मियाँ
गुज़रा है ये साल कि डोरी

उम्मीदों की टूट गई

स्टेशन पर पहुँचके जैसे

अपनी गाड़ी छूट गई
फिर भी हँसकर करेंगे स्वागत आया नूतन साल मियाँ
तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है क्या बतलाएं हाल मियाँ

उर्दू ‘आलमी सहारा’ का सोमवार को नई दिल्ली के एक होटल में लांच किया गया. चैनल का उद्घाटन सहारा इंडिया परिवार के उप प्रबंध कार्यकर्ता माननीय

सहारा न्यूज़ नेटवर्क की एक ख़ास पेशकश उर्दू ‘आलमी सहारा’ का सोमवार को नई दिल्ली के एक होटल में लांच किया गया. चैनल का उद्घाटन सहारा इंडिया परिवार के उप प्रबंध कार्यकर्ता माननीय ओपी श्रीवास्तव के कर कमलों द्वारा किया गया. इस मौके पर सहारा इंडिया परिवार के अभिभावक एवं प्रबंध कार्यकर्ता महोदय माननीय सहाराश्री श्री सुब्रत रॉय सहारा द्वारा दिया गया संदेश भी ‘समय’ चैनल पर दिखाया गया.
अपने संदेश में माननीय सहाराश्री ने कहा, ''सम्मानित दोस्तों सहारा न्यूज नेटवर्क देश के पत्रकारिता जगत में आला स्थान रखता है. जब भी निर्भीक, बौद्धिक और परिपक्व पत्रकारिता की बात आती है तो सहारा न्यूज नेटवर्क नित्य नए कीर्तिमान स्थापित करने के अनवरत प्रयत्न में इसका विश्वास, सम्मान और बढ़ जाता है. 24 घंटे का उर्दू चैनल ‘आलमी सहारा’ की शुरुआत होते ही हमने एक और कीर्तिमान हासिल कर लिया है. आलमी सहारा उभरते नवीन भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जगत में नयी सुबह की तरह है. सहारा इंडिया ने देश के उर्दू भाषी लोगों की भावना और सम्मान को अपने प्रिंट मीडिया में सर्वोत्कृष्ट प्रकाशन रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा, आलमी सहारा और वज़्में सहारा के माध्यम से सार्वजनिक कार्य किया है और आलमी सहारा के न्यूज़ चैनल की प्रेरणा हमें इसी से मिली है.
हमारा यह नया चैनल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्थापित न्यूज नेटवर्क के अनुभवों का भरपूर लाभ उठाएगा और ‘समय’ राष्ट्रीय और इसके क्षेत्रीय चैनल एनसीआर, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़, बिहार-झारखंड, उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड तथा मुंबई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्थापित हुए चैनलों ने अपना स्थान पहले ही बना रखा है. सहारा न्यूज नेटवर्क के 50 ब्यूरो, देश-विदेश में फैले हजार संवाददाता और 1600 वीसेट आलमी सहारा को भरपूर ऊर्जा देंगे. उर्दू भाषी जनसंख्या हमारे देश का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं.
भारतीय ईमानदारी और स्वछन्दता के गूढ़ सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए आलमी सहारा इस विरादरी को शक्तिशाली बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और साथ ही आलमी सहारा उर्दू भाषी लोगों में नई करवट लेते दर्शकों और अभिलाषकों को आक्रामकता और समृद्धता के साथ दिखाएगा. 54 देशों में पदचिन्हों के साथ आलमी सहारा सही मायने में अंतर्राष्ट्रीय होगा. अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को लांघता हमारा यह नया चैनल दुनिया में पथप्रदर्शक शामिल होगा. इसके लिए मैं अपार हर्ष के साथ दुनिया के सबसे बड़े परिवार में इस नये सितारे के जन्म का स्वागत करता हूं. आइये आलमी सहारा न्यूज चैनल का उत्साह बढ़ायें और आशीर्वाद दें. ताकि नया मुकाम हासिल कर सकें''.
आलमी सहारा
उद्घाटन के मौके पर सहारा इंडिया परिवार की ओर से माननीय ओ. पी. श्रीवास्तव, सहारा इंडिया मीडिया के एडिटर एवं न्यूज डायरेक्टर श्री उपेंद्र रॉय, शायर मुनव्वर राणा साहब, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया, अल्पसंख्यक कार्य मंत्री सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी लुई खुर्शीद, कांग्रेस सांसद जगदंबिका पाल, वरिष्ठ कांग्रेस नेता अहमद पटेल, केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस राज्य मंत्री जतिन प्रसाद, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला एवं अन्य वरिष्ठगणों के अलावा मीडियाकर्मी, इनके अलावा शहर के बहुत सारे गणमान्य लोग भी लांच के महत्वपर्ण लम्हों के अवसर पर मौजूद थे. साभार : समय लाइव

मीडिया के नाम पर उगाही करने वाले एक गिरोह का पुलिस ने भंडाफोड़ किया है.

नई दिल्‍ली : मीडिया के नाम पर उगाही करने वाले एक गिरोह का पुलिस ने भंडाफोड़ किया है. उत्‍तर-पूर्वी जिला पुलिस ने गिरोह के एक युवती सहित चार लोगों को गिरफ्तार कर उनके पास से इलेक्‍ट्रानिक मीडिया में प्रयोग होने वाले कैमरे, माईक, पहचान पत्र, वायरलेस सेट, मोबाइल सेट आदि कई सामान बारामद किए हैं. सीमापुरी थाने में इस बाबत मामला दर्ज किया गया है.
जिले के पुलिस उपायुक्‍त के मुताबिक इसी सप्‍ताह इलाके के एक व्‍यक्ति ने शिकायत दर्ज कराई थी कि कुछ लोग मीडिया में खबर प्रकाशित कराने के नाम पर उनसे उगाही करने आते हैं. उगाही घर बनाने को लेकर था. आरोपी युवकों का कहना था कि जो घर पीडि़त ने बनाया है वह अवैध और और इसे मीडिया में दिखाने के बाद इसे सरकार के हाथों तोड़ना निश्चित है. युवकों ने उस मकान के फोटो भी खींच लिए थे और फिर उनसे 25 हजार रुपये की मांग कर दी. धमकी यह भी दी गई कि पैसे नहीं देने पर पुलिस और संबंधित एजेंसियों के पास इसकी शिकायत की जाएगी. पीडि़त ने बिना देर किए पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी थी. शिकायत के बाद पुलिस ने पहले तीन और फिर एक युवक को गिरफ्तार कर इस गिरोह का भंडाफोड़ कर दिया. गिरोह में एक महिला भी थी. उसका नाम ममता है. गिरोह का सरगना सिमरन गुप्‍ता को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है.
पूछताछ में पता चला है कि ये लोग एक गिरोह की शक्‍ल देकर उगाही का धंधा कर रहे थे. सिमरन रोहिणी का है. जा‍मिया में पढ़ाई करने वाले सिमरन ने बताया है कि वह कुछ छोटे अखबारों में भी काम किया है. पर ज्‍यादा कमाई के लालच में उसने मीडिया के नाम पर उगाही का धंधा शुरू कर दिया. दो साल पहले जहांगीरपुरी में एक दफ्तर खोलकर कुछ अन्‍य साथियों के साथ मिलकर इस प्रकार की उगाही शुरू हुई. पुलिस ने इनके दफ्तर से कम्‍प्‍यूटर, पांच वायरलेस, दस मोबाइल फोन व कुछ मीडिया संगठनों के कार्ड बरामद किए हैं. गिरोह के अन्‍य सदस्‍यों की तलाश की जा रही है. साभार : जनसत्‍ता

दुनिया भर के 54 देशों में एक साथ प्रसारित होने वाला पहला उर्दू न्‍यूज चैनल 24 घंटे रहें ताजा खबरों के साथ आज शाम 7 बजे. जिसमें बताया गया है

: आज होगी चैनल की लांचिंग : राष्‍ट्रीय सहारा ने अपने पहले पन्‍ने पर विज्ञापन प्रकाशित किया है. जिसमें लिखा है - दुनिया भर के 54 देशों में एक साथ प्रसारित होने वाला पहला उर्दू न्‍यूज चैनल 24 घंटे रहें ताजा खबरों के साथ आज शाम 7 बजे. जिसमें बताया गया है कि अब सहारा ग्रुप का उर्दू चैनल आलमी सहारा भारत और उसके पड़ोसी देशों के अलावा एशिया महाद्वीप के बाहर के कई देशों में भी एक साथ प्रसारित किया जाएगा.
उल्‍लेखनीय है कि सहारा ने इसके लिए काफी पहले से अपनी तैयारी शुरू कर दी थी. अजीज बर्नी के संपादक रहने के समय से ही इस चैनल को लांच करने तथा अंतरराष्‍ट्रीय बनाने की कवायद शुरू कर दी गई थी. लेकिन कई बार यह प्रोजेक्‍ट विभिन्‍न कारणों से मूर्त रूप नहीं ले सका था. उपेंद्र राय ने अजीज बर्नी को इस चैनल से निपटाने के बाद इसके लांचिंग की जिम्‍मेदारी खुद देख रहे थे. चैनल की कमान उन्‍होंने वरिष्‍ठ पत्रकार एजाजू रहमान को दी थी. अजीज बर्नी के भर्ती किए हुए टीवी कर्मियों को अलग कर उन्‍होंने इसके लिए कई नई भर्तियां कीं.
उपेंद्र राय के नेतृत्‍व में ही आलमी सहारा को अंतरराष्‍ट्रीय बनाने की पूरी रणनीति तय की गई है. आज सायं 7 बजे से यह चैनल भारत, पाकिस्‍तान, नेपाल और बंग्‍लादेश के अलावा अफगानिस्‍तान, अर्मेनिया, ऑस्‍ट्रेलिया, अजरबेजान, बहरीन, भूटान, ब्रुनेई, कम्‍बोडिया, उत्‍तर कोरिया, ओमान, पापुआ न्‍यू गुनिया, फिलिपींस, कतर, रूस, सउदी अरब, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम, तजाकिस्‍तान, जार्जिया, हांगकांग, इंडोनेशिया, ईरान, इस्रायल, जापान, जार्डन, कजाकिस्‍तान, कुवैत, लाओस, मलेशिया, मालदीव, मंगोलिया, म्‍यांमार, नेपाल, किर्गिस्‍तान, उज्‍बेकिस्‍तान, तुर्कमेनिस्‍तान, इराक, संयुक्‍त अरब अमीरात, यमन, सीरिया, लेबनॉन, साइप्रस, तुर्की सहित कुल 54 देशों में एक साथ प्रसारित होगा. सूत्रों का कहना है कि आलमी सहारा में अंतरराष्‍ट्रीय खबरों को प्रमुखता दी जाएगी

टीएन नैनन को सर्वसम्मति से एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का अध्यक्ष चुना गया है।

बिजनेस स्टैंडर्ड के टीएन नैनन को सर्वसम्मति से एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का अध्यक्ष चुना गया है। एडिटर्स गिल्ड की सालाना आम सभा में इंडियन एक्सप्रेस के कोमी कपूर को महासचिव चुना गया, जबकि नई दुनिया के सुरेश बाफना कोषाध्यक्ष चुने गए। सभा में मौजूद सदस्यों की ओर से बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने गिल्ड की पिछली टीम राजदीप सरदेसाई, कोमी कपूर व रोहित बंसल का शुक्रिया अदा किया।
आमसभा में इस बात पर सहमति बनी कि पेड न्यूज के खिलाफ गिल्ड के सतत अभियान के हिस्से के तौर पर उन सभी गिल्ड सदस्यों के नाम गिल्ड की वेबसाइट पर 1 फरवरी, 2011 तक डाल दिए जाएंगे, जो इस खतरनाक प्रवृत्ति में शामिल न होने का हस्ताक्षरित हलफनामा देकर यह प्रतिज्ञा करेंगे।
सदस्यों का मानना था कि वेबसाइट पर नाम डालने से पहले सदस्यों को एक माह का वक्त देकर यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि सभी को हलफनामा पर हस्ताक्षर के लिए गिल्ड का सकरुलर मिल गया है। गिल्ड की आमसभा में इस बात पर खास चिंता जाहिर की गई कि राडिया टेप में जिस तरह के खुलासे हुए हैं, उनमें कुछ प्रतिष्ठित संपादकों ने पत्रकारिता की श्रेष्ठ परंपराओं का ख्याल नहीं रखा। इस घटना से जन-सामान्य के बीच मीडिया की विश्वसनीयता पर असर पड़ा है। सभी संपादकों से अपील की गई है कि वे मीडिया की गरिमा और सत्यनिष्ठा का हमेशा ख्याल रखें। साभार : भास्‍कर
 

न्यायपालिका ध्वस्त कर रही है लोकतांत्रिक ढांचा

न्यायपालिका ध्वस्त कर रही है लोकतांत्रिक ढांचा : पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) के राष्‍ट्रीय उपाध्यक्ष बिनायक सेन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर न्यायपालिका ने अपने गैर-लोकतांत्रिक और फासीवादी चेहरे को एक बार फिर उजागर किया है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी मानती है कि बिनायक सेन प्रकरण के इस फैसले ने अन्ततः लोकतांत्रिक ढांचे को ध्वस्त करने का काम किया है। यह न्यायपालिक की सांस्थानिक जनविरोधी तानशाही है, जिसका हम विरोध करते हैं।
जो काम सत्ता के सहारे पूंजीवादी ताकतें कार्यपालिका और व्यवस्थापिका से कराती थीं उसे अब न्यायपालिका कर रही है। पिछले दिनों विकीलिक्स ने हमारी पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी की वह किस तरह देश की महत्वपूर्ण जानकारियों को अमेरिका जैसे देशों से चोरी-छिपे बताती है, और उसके दबाव में जनविरोधी नीतियों को लागू करती है। पिछले साल नक्सलवाद उन्मूलन के नाम पर चलाया गया आपरेशन ग्रीन हंट भी इसी का हिस्सा था। पिछले दिनों राष्ट्रमंडल खेलों से लेकर 2जी स्पेक्‍ट्रम जैसे बड़े घोटाले क्या देशद्रोह नहीं थे, जो उनसे जुड़े सफेदपोशों को बचाने की हर संभव मदद सरकार कर रही है।
बिनायक सेन को आजीवन कारावास देकर न्यायालय ने वंचित तबके के प्रतिरोध को खामोश रहने की चेतावनी दी है, जो अब तक न्याय के अंतिम विकल्प के रुप में न्यायपालिका में उम्मीद लगाया था। हिंदुस्तान में न्यायालयों द्वारा पिछले दिनों जिस तरह से संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य, जिनके तहत आदमी और आदमी के बीच धर्म, जाति और लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने का आश्वासन दिया गया था, को खंडित किया जा रहा है, यह पूरे लोकतांत्रिक व्यवस्था को फासीवादी व्यवस्था में तब्दील करने की साजिश है।
छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून, जिसके तहत बिनायक सेन को देशद्रोही कहा गया, वह खुद ही एक जनविरोधी कानून है। जो सिर्फ और सिर्फ प्रतिरोध की आवाजों को खामोश करने वाला कानून है। बिनायक सेन लगातार सलवा जुडुम से लेकर तमाम जनविरोधी प्रशासनिक हस्तक्षेप के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाते थे, बल्कि वहां की आम जनता के स्वास्थ्य शिक्षा से जुड़े सवालों पर भी लड़ते थे। हम यहां इस बात को भी कहना चाहेंगे कि जिस तरह न्यायालय ने डा. सेन को आजीवन करावास दिया, ठीक इसी तरह भारतीय न्यायालय की इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ बेंच ने तीस सितंबर 2010 को कानून और संविधान को ताक पर रखकर आस्था और मिथकों के आधार पर अयोध्या फैसला दिया। न्यायपालिका के चरित्र को इस बात से भी समझना चाहिए कि देश की राजधानी दिल्ली में हुए ‘बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड’ पर न्यायालय ने पुलिस का मनोबल गिरने की दुहाई देते हुए इस फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की मांग को खारिज कर दिया था। भंवरी देवी से लेकर ऐसे तमाम फैसले बताते हैं कि हमारी न्यायपालिका का रुख दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिला विरोधी रहा है।
हम यहां इस बात को भी कहना चाहेंगे कि देश में हो रही आतंकी घटनाओं के लिए न्यायालय भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं, जिनसे न्याय न मिलने की हताशा से कुछ लोग आतंकवाद के प्रति अग्रसर हो रहे हैं। क्या न्यायपालिका बार-बार आंतकी संगठनों की इस बात, कि वह बाबरी विध्वंस, 2002 गुजरात दंगा या फिर अयोध्या फैसले से आहत होकर ऐसा कर रहे हैं, के सवाल को हल करने की कोशिश की। क्योंकि यह सवाल उसके न्याय के समीकरण से जुड़ा है, जो फासीवादी ताकतों को मजबूत कर रहा है। तो वहीं नक्सलवाद जो खुद को एक व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन कहता है, को जनता लोकतंत्र में न्याय न मिलने की वजह से एक नई व्यवस्था के रुप में अपना रही है, जिसके लिए पूरी व्यवस्था में सबसे ज्यादा जिम्मेदार न्यायपालिका ही है। जो अपने नागरिकों को उनके जीवन से जुडे़ मौलिक अधिकारों को भी नहीं दिलवा पा रही है।
ऐसे में हम इस बात कोन्यायपालिका ध्वस्त कर रही है लोकतांत्रिक ढांचा : पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) के राष्‍ट्रीय उपाध्यक्ष बिनायक सेन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर न्यायपालिका ने अपने गैर-लोकतांत्रिक और फासीवादी चेहरे को एक बार फिर उजागर किया है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी मानती है कि बिनायक सेन प्रकरण के इस फैसले ने अन्ततः लोकतांत्रिक ढांचे को ध्वस्त करने का काम किया है। यह न्यायपालिक की सांस्थानिक जनविरोधी तानशाही है, जिसका हम विरोध करते हैं।
जो काम सत्ता के सहारे पूंजीवादी ताकतें कार्यपालिका और व्यवस्थापिका से कराती थीं उसे अब न्यायपालिका कर रही है। पिछले दिनों विकीलिक्स ने हमारी पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी की वह किस तरह देश की महत्वपूर्ण जानकारियों को अमेरिका जैसे देशों से चोरी-छिपे बताती है, और उसके दबाव में जनविरोधी नीतियों को लागू करती है। पिछले साल नक्सलवाद उन्मूलन के नाम पर चलाया गया आपरेशन ग्रीन हंट भी इसी का हिस्सा था। पिछले दिनों राष्ट्रमंडल खेलों से लेकर 2जी स्पेक्‍ट्रम जैसे बड़े घोटाले क्या देशद्रोह नहीं थे, जो उनसे जुड़े सफेदपोशों को बचाने की हर संभव मदद सरकार कर रही है।
बिनायक सेन को आजीवन कारावास देकर न्यायालय ने वंचित तबके के प्रतिरोध को खामोश रहने की चेतावनी दी है, जो अब तक न्याय के अंतिम विकल्प के रुप में न्यायपालिका में उम्मीद लगाया था। हिंदुस्तान में न्यायालयों द्वारा पिछले दिनों जिस तरह से संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य, जिनके तहत आदमी और आदमी के बीच धर्म, जाति और लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने का आश्वासन दिया गया था, को खंडित किया जा रहा है, यह पूरे लोकतांत्रिक व्यवस्था को फासीवादी व्यवस्था में तब्दील करने की साजिश है।
छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून, जिसके तहत बिनायक सेन को देशद्रोही कहा गया, वह खुद ही एक जनविरोधी कानून है। जो सिर्फ और सिर्फ प्रतिरोध की आवाजों को खामोश करने वाला कानून है। बिनायक सेन लगातार सलवा जुडुम से लेकर तमाम जनविरोधी प्रशासनिक हस्तक्षेप के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाते थे, बल्कि वहां की आम जनता के स्वास्थ्य शिक्षा से जुड़े सवालों पर भी लड़ते थे। हम यहां इस बात को भी कहना चाहेंगे कि जिस तरह न्यायालय ने डा. सेन को आजीवन करावास दिया, ठीक इसी तरह भारतीय न्यायालय की इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ बेंच ने तीस सितंबर 2010 को कानून और संविधान को ताक पर रखकर आस्था और मिथकों के आधार पर अयोध्या फैसला दिया। न्यायपालिका के चरित्र को इस बात से भी समझना चाहिए कि देश की राजधानी दिल्ली में हुए ‘बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड’ पर न्यायालय ने पुलिस का मनोबल गिरने की दुहाई देते हुए इस फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की मांग को खारिज कर दिया था। भंवरी देवी से लेकर ऐसे तमाम फैसले बताते हैं कि हमारी न्यायपालिका का रुख दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिला विरोधी रहा है।
हम यहां इस बात को भी कहना चाहेंगे कि देश में हो रही आतंकी घटनाओं के लिए न्यायालय भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं, जिनसे न्याय न मिलने की हताशा से कुछ लोग आतंकवाद के प्रति अग्रसर हो रहे हैं। क्या न्यायपालिका बार-बार आंतकी संगठनों की इस बात, कि वह बाबरी विध्वंस, 2002 गुजरात दंगा या फिर अयोध्या फैसले से आहत होकर ऐसा कर रहे हैं, के सवाल को हल करने की कोशिश की। क्योंकि यह सवाल उसके न्याय के समीकरण से जुड़ा है, जो फासीवादी ताकतों को मजबूत कर रहा है। तो वहीं नक्सलवाद जो खुद को एक व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन कहता है, को जनता लोकतंत्र में न्याय न मिलने की वजह से एक नई व्यवस्था के रुप में अपना रही है, जिसके लिए पूरी व्यवस्था में सबसे ज्यादा जिम्मेदार न्यायपालिका ही है। जो अपने नागरिकों को उनके जीवन से जुडे़ मौलिक अधिकारों को भी नहीं दिलवा पा रही है।
ऐसे में हम इस बात को कहना चाहेंगे कि जो न्यायालय जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की अवमानना कर रहे हैं, उनकी अवमानना करने का पूरा अधिकार लोकतांत्रिक जनता को है। क्योंकि विनायक सेन जनता के लिए, जनता द्वारा स्थापित लोकतंत्र के सच्चे सिपाही हैं। हम मांग करते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार विनायक सेन के खिलाफ लगाए गए जनविरोधी राजनीति से प्रेरित आरोपों व जनविरोधी छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून को तत्काल रद्द करे और विनायक सेन को रिहा करे।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी की तरफ से राजीव यादव द्वारा जारी कहना चाहेंगे कि जो न्यायालय जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की अवमानना कर रहे हैं, उनकी अवमानना करने का पूरा अधिकार लोकतांत्रिक जनता को है। क्योंकि विनायक सेन जनता के लिए, जनता द्वारा स्थापित लोकतंत्र के सच्चे सिपाही हैं। हम मांग करते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार विनायक सेन के खिलाफ लगाए गए जनविरोधी राजनीति से प्रेरित आरोपों व जनविरोधी छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून को तत्काल रद्द करे और विनायक सेन को रिहा करे।
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी की तरफ से राजीव यादव द्वारा जारी

Saturday, December 18, 2010

bhopal news reporter

new news for tibat ferdam staragal

attack tager on zipsy

भोपाल गैस हादसा: कैंसर, गुर्दा पीड़ितों के मुआवजे में देरी की आशंका

भोपाल गैस हादसा: कैंसर, गुर्दा पीड़ितों के मुआवजे में देरी की आशंकाभोपाल, 17 दिसम्बर 2010 । भोपाल गैस हादसे के चलते कैंसर व गुर्दे का मरीज बने पीड़ितों को मध्य प्रदेश सरकार की मांग पर मुआवजा मिलना है, मगर इन पीड़ितों की सूची अब तक भोपाल गैस पीड़ित कल्याण आयुक्त के कार्यालय नहीं पहुंची है। इसी के चलते इन दोनों रोगों से ग्रस्त मरीजों को मुआवजा मिलने में देरी हो सकती है।
गैस पीड़ितों की समस्याओं के निदान के लिए बने मंत्री समूह की जून 2010 में हुई बैठक में लगभग 45 हजार प्रभावितों को मुआवजा देने का निर्णय लेते हुए 740 करोड़ रुपये की राशि मंजूर की गई थी।
प्रदेश सरकार के अनुरोध पर मंत्री समूह ने लगभग 2000 कैंसर पीड़ितों और 1000 गुर्दा पीड़ितों को भी मुआवजा देने पर सहमति जताई थी। इसके लिए पीड़ितों को 15 दिसम्बर से नोटिस भेजने की प्रक्रिया शुरू हो गई है और 19 दिसम्बर से मुआवजा दिया जाना है।
भोपाल गैस पीड़ित कल्याण आयुक्त कार्यालय के प्रभारी रजिस्ट्रार भारत भूषण श्रीवास्तव ने एक सवाल के जवाब में बताया कि कैंसर और गुर्दा पीड़ितों को दो-दो लाख रुपये दिए जाने हैं लेकिन इससे पहले यह सूची प्रदेश सरकार को देनी है।
अभी तक उनके पास 419 गुर्दा पीड़ितों के आवेदन आए हैं, वहीं कैंसर पीड़ितों के आवेदनों में कुछ खामियां पाए जाने पर उन्हें वापस भेज दिया गया है। आवेदनों में से कुछ में तो आठ साल के बच्चे को भी कैंसर पीड़ित दर्शाया गया था जो कि बहुत बड़ी खामी थी।
उन्होंने आगे बताया है कि दोनों बीमारियों से पीड़ित लोगों के आवेदन तय संख्या तक जमा होने पर मुआवजा वितरित किया जाएगा। सूची में तय संख्या से ज्यादा नाम होने पर राज्य सरकार को केंद्र सरकार से मार्गदर्शन लेना हेगा। वहीं मुआवजा देने से पहले मरीज के चिकित्सकीय दस्तावेजों का परीक्षण किया जाएगा।
उन्होंने बताया कि फिलहाल उनके पास इन दो बीमारियों के मरीजों की अंतिम सूची नहीं आई है, लिहाजा इन्हें मुआवजा मिलने में विलम्ब हो सकता है।
दूसरी ओर प्रदेश के गैस राहत विभाग के उप सचिव के. के. दुबे देरी की इस वजह को मानने को तैयार नहीं है। उन्होंने कहा कि लगभग 2100 कैंसर पीड़ितों की सूची तैयार हो चुकी है और कल्याण आयुक्त को भेज दी गई है। इसी तरह गुर्दा पीड़ितों की सूची भी भेजी जा रही है।

दिग्विजय सिंह की सीख पर न जाए राहुल: उमा भारती

दिग्विजय सिंह की सीख पर न जाए राहुल: उमा भारतीलखनऊ, 18 दिसंबर। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पूर्व नेता एवं मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने शनिवार को कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पर हमला बोलते हुए कहा कि वह कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से देश को बांटने वाली राजनीति का पाठ सीख रहे हैं।
उमा ने लखनऊ में संवाददाताओं से बातचीत में कहा कि राहुल, दिग्विजय सिंह को अपना गुरु मानते हैं और उनके लिखे नोट्स पढ़ते हैं। मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) पर हमले करने का पाठ राहुल को दिग्विजय सिंह ने ही सिखाया है।
उमा ने कहा कि दिग्विजय सिंह की सीख पर न जाए राहुल..वह गुरु बनने लायक नहीं हैं।
हिंदू संगठनों के अभ्युदय को ज्यादा खतरनाक बताने सम्बंधी बयान पर उमा ने कहा कि राहुल को अपने बयानों में थोड़ी परिपक्वता लानी चाहिए।
विकिलीक्स द्वारा लीक किए गए एक संदेश के अनुसार राहुल ने कथित रूप से अमेरिकी राजदूत टिमोथी जे. रोमर से कहा था कि यद्यपि आतंकी संगठन, लश्कर-ए-तैयबा को भारतीय मुस्लिम समुदाय के कुछ खास तत्वों का समर्थन होने के प्रमाण हैं, लेकिन चरमपंथी हिंदू संगठनों का अभ्युदय ज्यादा खतरनाक हो सकता है। ये हिंदू संगठन धार्मिक तनाव और मुस्लिम समुदाय के साथ राजनीतिक टकराव की स्थिति पैदा करते हैं।
उमा, रामलला (अयोध्या) का दर्शन करने के सिलसिले में लखनऊ पहुंची हैं। हालांकि उनके एक करीबी ने कहा कि वह अयोध्या जाने का कार्यक्रम स्थगित कर सकती हैं।

uma bharti

नवदुनिया ज्योतिर्मय अवार्ड्स से श्रेष्ठ शिक्षक सम्मानित

नवदुनिया ज्योतिर्मय अवार्ड्स से श्रेष्ठ शिक्षक सम्मानित

Thursday, October 28, 2010

भारत यात्रा पर आएंगे शीर्ष चीनी नेता

कश्मीरियों के लिए नत्थी वीजा जारी करने के मुद्दे पर भारत और चीन के मध्य विवाद के बीच एक शीर्ष चीनी नेता भारत की तीन दिवसीय सद्भावना यात्रा पर जाएंगे। इस दौरान वह राजनीतिक नेतृत्व के साथ बातचीत करेंगे। चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी में नौंवे स्थान पर आने वाले योंगकांग 31 अक्तूबर को इस तीन दिवसीय यात्रा पर रवाना होंगे। शिन्हुआ संवाद समिति ने सीपीसी की केंद्रीय समिति के अंतरराष्ट्रीय (मामले) विभाग के प्रवक्ता लि जून के हवाले से कहा, ‘यह यात्रा भारत सरकार के न्यौते पर हो रही है।’

सीपीसी की केंद्रीय समिति के राजनीतिक ब्यूरो की स्थायी समिति के सदस्य की भारत यात्रा के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेताओं से भेंट करने की संभावना है। भारतीय अधिकारी इस यात्रा को बहुत महत्व दे रहे हैं। वर्ष 2006 में राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा के बाद किसी चीनी नेता की यह पहली उच्च स्तरीय यात्रा है। इसके अलावा यह यात्रा चीन द्वारा कश्मीरियों को पासपोर्ट के बजाय नत्थी वाला वीजा प्रदान करने के मुद्दे पर दोनों देशों के बीच विवाद की पृष्ठभूमि में हो रही है।

CWG : कंपनियों पर आयकर के छापे

Thursday, September 30, 2010

कांग्रेस नेता सहित 8 जिला बदर

कांग्रेस नेता सहित 8 जिला बदरभोपाल, 29 सितम्बर। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के जिला प्रशासन ने कांग्रेस नेता आरिफ मसूद सहित आठ अपराधियों को जिला बदर कर दिया है। इन अपराधियों को भोपाल जिला और समीपवर्ती जिलों की सीमा से निष्कासित किया गया है।
अपर जिला मजिस्ट्रेट रजनीश श्रीवास्तव ने मध्य प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम 1990 की धारा पांच (क)(ख) के तहत आरिफ मसूद, ठाकुर प्रसाद, दयाल, मुकेश जोशी, अख्तर, फिरोज खान, मल्लू उर्फ विनोद, राजू उर्फ राजनारायण को छह-छह माह के लिए जिले से निष्कासित किया गया है। इन सभी अपराधियों को भोपाल सहित विदिशा, सीहोर, रायसेन, राजगढ़ व होशंगाबाद की राजस्व सीमाओं से बाहर चले जाने का आदेश दिया गया है।
आधिकारिक तौर पर दी गई जानकारी के मुताबिक इन सभी अपराधियों पर हत्या के प्रयास, शासकीय कार्य में बाधा डालने, बलवा, तोड़फोड़, चाकूबाजी, मारपीट, अवैध शस्त्र रखने जैसे मामले दर्ज हैं।

Wednesday, September 29, 2010

लखनऊ। आखिर वह घड़ी आ गई, जिसका इंतजार साठ साल से हो रहा था। अयोध्या में विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट की विशेष पीठ गुरुवार को अपना

लखनऊ। आखिर वह घड़ी आ गई, जिसका इंतजार साठ साल से हो रहा था। अयोध्या में विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट की विशेष पीठ गुरुवार को अपना फैसला सुनाएगी। न्यायमूर्ति एस.यू. खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा की पीठ ने फैसला सुनाने का वक्त अपरान्ह साढ़े तीन बजे तय किया है।
हाई कोर्ट की विशेष पीठ के सामने वर्ष 1995 से इस मामले में गवाही शुरू हुई थी। कुल 33 गवाह मस्जिद पक्ष और 54 गवाह मंदिर पक्ष से पेश हुए। करीब 15,000 पृष्ठों पर गवाही दर्ज हुई है। हाई कोर्ट की विशेष पीठ ने इसी साल 26 जुलाई को मामले की सुनवाई पूरी की है। इसके बाद 24 सितंबर को फैसले की तारीख नियत की गई थी, लेकिन 23 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस पर अंतरिम रोक लगा दिए जाने से यह संभव नहीं हुआ। यह रोक पूर्व नौकरशाह रमेशचंद्र त्रिपाठी की उस याचिका पर दिया गया, जिसमें सुलह-समझौते की कोशिश के लिए फैसला टालने की अपील की गई थी। हालांकि, 28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने त्रिपाठी की याचिका को खारिज कर दिया और फैसले का रास्ता साफ हुआ।
साठ साल से जारी मुकदमेबाजी
विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर पिछले साठ साल से मुकदमेबाजी चल रही है। इस संबंध मे सिविल जज [मुंसिफ अदालत], फैजाबाद की अदालत में कुल चार दावे दाखिल थे। सिविल जज, फैजाबाद ने छह जनवरी, 1964 को एक आदेश जारी कर चारों मुकदमे सामूहिक सुनवाई के लिए एक साथ जोड़ दिए। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने 10 जुलाई, 1989 को प्रथम चार मुकदमे मौलिक व सामूहिक सुनवाई के लिए हाई कोर्ट में स्थानातरित किए। पाच फरवरी, 1992 को दिगंबर अखाड़ा के परमहंस रामचंद्र दास [अब दिवंगत] ने मुकदमा वापस लिया। इसी तारीख को हाई कोर्ट ने वादी राम लला विराजमान के मुकदमा को भी अन्य मुकदमों के साथ सामूहिक सुनवाई के लिए हाई कोर्ट में मंगवाया। इस तरह कुल चार मुकदमे हैं।
सौ बिंदुओं पर फैसला लेकिन चार प्रमुख
बुनियादी वाद भले ही यह है कि अयोध्या का जो विवादित स्थल है, उस पर मालिकाना हक किसका है? लेकिन, विशेष पीठ को सौ से ज्यादा बिंदुओं पर फैसला सुनाना है। उसमें भी चार प्रमुख हैं-[1] क्या प्रश्नगत विवादित स्थल श्री रामचंद्र की जन्मभूमि है? [2] क्या स्थल मुगल बादशाह बाबर द्वारा वर्ष 1528 में बनवाई गई बाबरी मस्जिद है? [3] क्या वहा पर वर्ष 1949 में भी श्रीराम की मूर्तिया विराजमान थीं? [4] क्या वर्ष 1949 के पहले विवादित स्थल पर नमाज पढ़ी जाती थी? फैसला इस पर भी आना है कि क्या करीब सवा सौ साल पहले [1885-86 में] इसी मसले पर सुनाया गया अदालत का फैसला अभी लागू है? निर्मोही अखाड़ा ने [तत्कालीन] मस्जिद से सटे राम चबूतरे पर मंदिर बनाने का दावा किया था, जिसे अदालत ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ऐसा होने से वहा हर रोज विवाद होता रहेगा।
प्रदेश में 1,90,000 जवानों के हाथ सुरक्षा
नई दिल्ली में केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने बताया कि पूरे देश में इस फैसले के मद्देनजर पुख्ता सुरक्षा इंतजाम किए गए हैं। गृह मंत्री ने कहा, 'कानून व्यवस्था और शांति बनाए रखने के लिए केंद्र ने पर्याप्त उपाय किए हैं। देश भर में पर्याप्त सुरक्षा बल तैनात किए गए हैं। उत्तर प्रदेश में हर तरह के पुलिस बल को मिलाकर कुल एक लाख 90 हजार पुलिसकर्मी हैं। कानून व्यवस्था की स्थिति कायम करने के लिए यह संख्या काफी है।'
अगले आदेश तक समूह एसएमएस पर रोक
चिदंबरम ने कहा, 'समूह [बल्क] एसएमएस और एमएमएस पर प्रतिबंध अगले आदेश तक जारी रहेगा।' उन्होंने बताया कि गड़बड़ी फैलाने की कथित कोशिश के रूप में सरकार को संकेत मिला था कि समूह एसएमएस के जरिए संदिग्ध संदेश भेजे जा रहे हैं। इसी वजह से सरकार ने इस पर 22 सितंबर को प्रतिबंध लगाने का फैसला किया था। बाद में इसे बढ़ाकर पहले 29 सितंबर और फिर 30 सितंबर कर दिया गया था।
मनमोहन, सोनिया ने की शांति की अपील
अयोध्या पर फैसले के मद्देनजर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन [संप्रग] की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने देशवासियों से शांति की अपील की है। सिंह की ओर से मीडिया में जारी अपील में कहा गया, 'अदालत के इस निर्णय को पूरा सम्मान मिलना चाहिए। सभी वर्गो के लोगों के लिए इस फैसले के बाद धैर्य और शांति कायम रखना जरूरी है। लोगों के किसी वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग को उकसाने का कोई प्रयास नहीं किया जाना चाहिए अथवा ऐसी कोई बात नहीं की जानी चाहिए जो दूसरों की भावनाएं आहम करें। सरकार सभी वर्गो से यह अपील करती है कि वे फैसले के बाद शांति व्यवस्था कायम रखें।' सोनिया गांधी की ओर से जारी बयान में कहा गया, 'मेरा सबसे विनम्र अनुरोध है कि जो भी निर्णय हो उसे उदारता से स्वीकार करें। पहले की तरह न्यायपालिका पर आस्था रखते हुए हर कीमत पर शांति, आपसी सद्भाव और भाईचारा बनाए रखें। भावनात्मक एकता ही भारतीय समाज और राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति है।'
चिदंबरम को याद आए महात्मा गांधी
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के मद्देनजर कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने की आशंका के बीच केंद्रीय गृह मंत्री चिदंबरम को महात्मा गांधी याद आ गए। उन्होंने बापू के लोकप्रिय भजन की पंक्तियां पढ़कर देशवासियों से शांति और सद्भाव की अपील की, 'ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।' चिदंबरम ने समाज के सभी वर्गो से कहा, 'वे उन मूल्यों को बरकरार रखें, जिनकी वजह से भारत का नाम दुनिया में मशहूर है।' साथ ही कहा, 'इस फैसले में न कोई जीतेगा और न हारेगा। जो हाई कोर्ट के फैसले से असंतुष्ट होगा, उसे सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार होगा।'
सुरक्षा, सख्ती, संयम
लखनऊ, जागरण ब्यूरो : सूबे में अमन और सद्भाव बनाये रखने के लिए सरकार ने जबर्दस्त सुरक्षा प्रबंध किये हैं। अफसरों को लापरवाही न बरतने की हिदायत दी गयी है और आम जनता से संयम बरतने की अपील की गयी है। मुख्यमंत्री मायावती खुद सभी सुरक्षा प्रबंधों पर नजर रख रही हैं।
सुरक्षा : अप्रिय घटना रोकने को ढाई लाख से अधिक सुरक्षाकर्मी प्रदेश में तैनात हैं। सेना से भी मदद के लिए तैयार रहने का अनुरोध। नेपाल से जुड़ी सीमा सील। केन्द्र से मिला 52 कम्पनी अर्धसैनिक बल अयोध्या व हाईकोर्ट परिसर की सुरक्षा में तैनात। इनमें 40 कम्पनी सीआरपीएफ तथा 12 कंपनी रैपिड एक्शन फोर्स के जवान शामिल। 19 जिले अति संवेदनशील व 25 जिले संवेदनशील मानकर वहा सुरक्षा के विशेष प्रबंध किये गये है। अयोध्या में 20 कम्पनी अर्धसैनिक बल, 30 कम्पनी पीएसी, पाच हजार होमगार्ड और 10 हजार पुलिसकर्मी तैनात। अतिसंवेदनशील माने गए 19 जिलों में पाच-पाच तथा संवेदनशील 25 जिलों में तीन-तीन और सामान्य माने गए जिलों में एक से दो कम्पनी पीएसी तैनात।
सख्ती : धारा 144 लागू होने के कारण जुलूस और मार्च पर प्रतिबंध। फैसले के मद्देनजर आतिशबाजी और मिठाई बाटने तक पर रोक। शांति व्यवस्था बनाने के लिए संवेदनशील स्थलों पर चेकिंग तेज। होटल, लाज एवं धर्मशालाओं में ठहरे लोगों के बारे में पड़ताल। अब तक उन्माद फैलाने के आरोपी रहे 45 हजार से भी अधिक लोग पाबंद। सभी जिलाधिकारियों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय लेने की हिदायत।
संयम : जिलों में थानास्तर पर बनायी गई शाति समितियों के जरिये गावों, मोहल्लों में अमन चैन बनाये रखने की कोशिश। लगभग डेढ़ हजार थानों में 15 हजार से अधिक पुलिस मित्रों को भी सक्रिय किया गया है। अमन चैन बनाये रखने के लिए आगनबाड़ी, स्वास्थ्यकर्मी, लेखपाल, सिंचाईकर्मी, राजस्वकर्मी, प्रधान, राशन दुकानदारों, वकील, डाक्टर व व्यापारी समुदाय का सहयोग शामिल। सभी थानों एवं शहर के महत्वपूर्ण स्थलों पर सार्वजनिक सूचना प्रणाली [पब्लिक एड्रेस सिस्टम] लागू।
अमन-चैन बहाली के लिए तैनात सुरक्षाकर्मी
पुलिसकर्मी - 124778
पीएसी -25847
होमगार्ड -80000
पीआरडी स्वयं सेवक -20000
अर्धसैनिक बल -52 कंपनी [एक कम्पनी में सौ जवान]
लखनऊ, जाब्यू : अप्रिय घटना की रोकथाम को डीजीपी कार्यालय को तत्काल सूचना देने को कहा गया है। डीजीपी कार्यालय में इसके लिये एक कंट्रोलरूम बनाया गया है। यहां फोन नम्बर-2206901, मोबाइल नम्बर- 94544002508, 09, 10 तंथा हेल्पलाइन नम्बर-9307100100 एवं 9984100100 पर अयोध्या मामले को लेकर क्षेत्र में अफवाह फैलने, मारपीट या विवाद होने सम्बंधी घटनाओं के साथ ही क्षेत्र में हुई किसी अवांछनीय गतिविधियों के बारे में जानकारी देने का आग्रह किया गया है। पुलिस महानिरीक्षक पीएसी आरपी सिंह ने यहां उक्त जानकारी दी। उन्होंने कहा हर सूचना पर त्वरित कार्रवाई की जायेगी।

लखनऊ, जाब्यू : जिलों में सुरक्षा प्रबंधों का जायजा लेने के लिए आला पुलिस अफसरों के लिए तीन हेलीकाप्टर की व्यवस्था की गयी है, जिनसे उन्होंने बुधवार को कई जिलों का निरीक्षण भी किया। यह सिलसिला अगले आदेश तक जारी रहेगा। रात्रि में इनसे अयोध्या सहित विभिन्न शहरों का जायजा लिया गया। अफसरों ने सर्च महत्वपूर्ण स्थलों, शहरों में की गयी बेरीकेटिंग पर तैनात पुलिसकर्मी अपनी ड्यूटी पर मुस्तैदी से जुटे हैं या नहीं इसकी चेकिंग की जायेगी।
 

Monday, September 27, 2010

First international flight from Bhopal to carry Haj pilgrims

First international flight from Bhopal to carry Haj pilgrims

Bhopal, Sep 26, The first international flight carrying Haj pilgrims will take off from Raja Bhoj Airport here on October 21. "It will be for the first time that an international flight will take off from Raja Bhoj Airport," an official said adding that the airport authorities have made all preparations in this regard. NAS Air, a subsidiary of the Saudi National Air Services, has bagged the contract to fly Haj pilgrims from here, Madhya Pradesh Haj Committee Chairman Saleem Quereshi told today. The airline will fly the Haj pilgrims from here to Ras al-Khaimah, one of the emirates of the United Arab Emirates (UAE) from October 21 to October 30, he said adding more than 2500 pilgrims will leave for the pilgrimage from Bhopal. Besides, Haj pilgrims will also fly to the holy destination from Indore. He said that more than 1500 pilgrims will fly to their destination from Indore between October 9 - October 17.

Bhopal Gas-hit Survivors Still Afflicted with Diseases, Progenies Being Born with Birth-related Defects

Despair and depression is writ large on the faces of the survivors of Bhopal Gas Tragedy, the world's worst industrial disaster, as they continue to suffer silently with death staring them in their faces. The helplessness of these victims is to be seen to be believed as they watch their progenies afflicted with stunted growth born with a host of birth-related defects. With the upcoming 25th anniversary of the catastrophe a new generation has come up which is handicapped physically, mentally and emotionally.
A Bhopal child with tumour in her eyeball
This scenario and state of affairs is thanks to the fall-out of the poisonous. 40 tonnes of Methyl Iso Cyanate, (MIC), and other lethal gases that spewed out of the Union Carbide Corporation’s pesticide plant in Bhopal, the capital city of central Indian state of Madhya Pradesh, on the intervening night of December 2-3, 1984, exposing over 5,00,000 people to the toxic fumes. While 25,000-35,000 people have died since then and hundreds of thousands of persons have been maimed for life.
Children still being born in Bhopal to badly affected survivors are blind, lame, with limbs twisted or missing, deaf & mute, brain-damaged, with hare-lips, cleft palates, webbed
 
A Bhopal child with tumour in her eyeball
 
fingers, cerebral palsy, tumours where there should be eyes etc. The still-born often cannot be recognised as human. They were damaged in the womb by chemicals leaking from the same Union Carbide factory that killed thousands in 1984 and to-date still counting.
Bhopal is well known as the site of the world's worst industrial disaster in 1984. What is less well known is that a medical disaster of unmatched proportions continues to re-victimize the gas victims to this day.
Following the gas disaster the Indian Council of Medical Research,(ICMR), a government agency – concluded, on the basis of mortality figures, that over 520,000 exposed persons had poisons circulating in their bloodstream causing different degrees of damage to almost all the systems in the body.
Adil, child of a gas-victim, born with croocked legs
 
Today, well over 120,000-150,000 chronically ill survivors are in desperate need of medical attention and an estimated 10 to 15 people are dying every month from exposure-related illnesses. Breathlessness, persistent cough, diminished vision, early age cataracts, loss of appetite, menstrual irregularities, recurrent fever, back and body aches, loss of sensation in the limbs, fatigue, weakness, anxiety and depression are the most common symptoms among survivors. The alarming rise in cancers, TB, reproductive health problems and others such as growth retardation among children born after the disaster remain undocumented. The official agency for monitoring deaths has
Adil, child of a gas-victim, born with croocked legs
 
been closed since 1992.
According to Dr. N. Ganesh, an expert from Jawaharlal Nehru Cancer Hospital and Research Centre, the research conducted by him revealed that 53 per cent of the gas victims suffer from chromosomal aberrations as compared to 10 per cent common people. Also the rate of infertility and abortions are four to five per cent higher in gas victims, he added.
A recent survey says that 43 per cent of the gas victims still suffer from respiratory problems, 10 per cent from heart-related problems, nine per cent with eye problems, eight per cent with general depression problems and six per cent with gastro-intestinal problems.
To this day, the treatment of the Bhopal victims is impeded because Dow-Carbide callously refuses to share all its medical information on the toxic effects of the gases released that night, regarding the information as a “trade secret”. As a result, effective long-term medical treatment has been hampered. Even worse, the effects of the gases on future generations remains unclear even as health effects manifest themselves with disturbing regularity among the children of gas-exposed parents. Since the disaster, the city has been plagued with an epidemic of cancers, menstrual disorders and what one doctor described as "monstrous births.”
It may be recalled here that in a show of publicity as the bodies stacked up, Carbide flew a series of “top medical experts” to Bhopal to sing a chorus of reassurance. Dr. Hans Weil - reprimanded for unethical conduct by a US court for fudging medical data on behalf of the Johns-Manville corporation - predicted that ‘most victims would fully recover’. Pulmonary specialist Thomas Petty, also flown to Bhopal by Carbide, said that victims were ‘recovering rapidly’. No report made by Carbide-sponsored doctors was made available to the Indian government.
Six year old Sarmil born blind
It may be recalled that in March 1985, a column of frightened mothers-to-be wound towards a government hospital with bottles containing urine samples. The women asked for the samples to be tested to check whether their babies could be born damaged, and to ask for sodium thiosulphate injections to rid their bodies of toxins inhaled on ‘that night’.
Instead of injections, tests, medical advice and kindness they were driven away by police with sticks. Ironically, even as these scared women were being chased away, the Indian Council of Medical Research, (ICMR), was carrying out a double-blind clinical trial to test the efficacy of sodium thiosulphate injections as
 
Six year old Sarmil born blind
 
a detoxifycant for the gas-exposed.
Other ‘expertise’ included Carbide’s Dr. Bipin Awasia, who sent a telex to Bhopal recommending treatment with sodium thiosulphate. When in Bhopal, flanked by lawyers, he said he’d been mistaken. As a result, tens of thousands of ailing victims were denied a treatment that double blind clinical trials had shown to be effective. Success of the treatment would have proven that the gases had crossed into the bloodstream, thus generating more expensive damages against Carbide.
Foetus of an unborn child of 3rd December 1984 Bhopal gas leak preserved in formaldehyde in Govt. Hamidia Hospital.
And while the fears of mothers-to-be were all too soon realized in what one Swedish doctor described as ‘a spate of horrific births’, the ICMR results took 22 years to be published, when they revealed – a whole generation too late – that the injections could indeed have saved tens of thousands of lives. The disaster has faded in the world's memory, but in Bhopal the damaged births continue.
Union Carbide (now Dow Chemical,
 
Foetus of an unborn child of 3rd December 1984 Bhopal gas leak preserved in formaldehyde in Govt. Hamidia Hospital.
 
following the February 2001 merger) continues to claim over 60 years of research (including research on human 'volunteers') on MIC (the gas that leaked from the Bhopal pesticide plant) as “trade secrets”. There is more than enough research to suggest that by withholding information, propagating misinformation and the withdrawal of funds meant for medical care, Union Carbide has impeded the health care efforts of the victims to help themselves. The ICMR in turn stopped all research into the health effects of the gas in 1994 and is yet to publish the findings of the 24 research studies it had carried out up to that point involving over 80,000 survivors.
From the start, the medical response ranged from inadequate to catastrophic. On that night, hospital officials frantically called Union Carbide, seeking a treatment protocol. When they finally got through, they were blithely assured that the gas which was killing thousands was “nothing more than a potent tear gas” and that victims merely had to “wash their eyes with water.”
In the absence of medical information, no treatment protocols specific to exposure-induced multi-systemic problems exist and symptomatic treatment remains the mainstay of medical response. Of the two official publications resembling treatment protocols, the most recent by the ICMR is 11 years old and covers little except the management of respiratory problems, and the vast majority of the medical community in Bhopal is not even aware of its existence. As a result, drugs for temporary symptomatic relief have been the mainstay of medical care ever since the morning of the disaster. This indiscriminate prescription of steroids, antibiotics and psychotropic drugs continues to compound the damage caused by gas exposure.
In the prevailing situation of despair, the Sambhavna Trust, which is a charitable trust run by a group of eminent doctors, scientists, writers and social workers who have been involved with various aspects of the Union Carbide disaster ever since its occurrence in December 1984, believes in creating possibilities by generating compassion. At Sambhavna, survivors are offered free medical care through Allopathy, Ayurveda (an indigenous system of medicine based on herbs) and Yoga. The 21 staff members of the Sambhavna clinic (among whom 9 are survivors themselves) include five physicians, two yoga and two Panchakarma therapists and five community health workers who carry out health surveys, health education and community programs for better health. Satinath Sarangi, the metallurgical engineer-turned-activist, who arrived in Bhopal a day after the disaster and has stayed on to help the survivors in every way. Better known as Sathyu, he is a founding trustee of the charitable Sambhavna Clinic for the gas victims. The work carried out by the Sambhavna Trust since 1996 has shown that it is possible to evolve simple, safe, effective, ethical and participatory ways of treatment monitoring and research for the survivors of Bhopal. However, Sambhavna is small compared to the magnitude and complexity of the disaster. While an estimated 120,000-150,000 survivors of the disaster are today chronically ill, the clinic run by this trust has provided direct treatment to little over 16,000 people and provided support to about the same number through its health initiatives in 10 communities close to the Union Carbide factory.
Women's Health: Given the official neglect towards monitoring and care of gynaecological complications caused by the disaster, special attention is paid by Sambhavna in this area. While officials continue to deny any exposure-related gynaecological health consequence, data collected at Sambhavna shows that of 190 females, aged between 13 and 19, who came to the clinic between 1st June 1999 and 31st March 2000, 113 reported menstrual problems, including painful and irregular menses, heavy bleeding and excessive vaginal secretions.
The secretions, locally as ‘safed pani’ (literally white water), are not often openly discussed because of social taboos. Community health worker Aziza explains, "Women do talk about it more now but are often confined to their houses and can’t talk to their husbands about their problems or get education." Worryingly, Sambhavna’s pathologist has found a high proportion of abnormal PAP smears among women survivors, increasing fears for a connection between cervical cancer and gas exposure. Already in India, cervical cancer is the highest occurring cancer for women, but there is no provision for routine cervical screening in Bhopal. Women who are referred to local hospitals after producing abnormal smears have been reluctant to attend, given that the most common medical procedure for cervical abnormalities is an immediate hysterectomy. This is referred to as a "blind hysterectomy" because no one including the doctor knows how far or how little the malignancy is.
Meanwhile, the Indian Supreme court directed Carbide to build a 500 bed hospital from its own money. Instead, Carbide put £1000 into a trust in London and tried to transfer into this its shares in UCIL that had been seized by the Bhopal court due to Carbide’s non-appearance to face manslaughter charges. In 1994 it succeeded, thus evading the Bhopal court where the judge declared the transfer ‘malafide’. The 350-bed hospital took nearly ten years to build and within a year of opening was found to be profiteering with private patients, despite being bound to treat gas victims for eight years ‘in the first instance’.
So many government hospitals have been built in Bhopal since the 1984 disaster, that, as the International Medical Commission on Bhopal, (IMCB), has observed, there are more hospital beds per 1000 population here than in the USA or Europe. The Comptroller and Auditor General's annual reports suggest that excessive commissions, and not concern for victims' welfare, is the real motive for building these huge hospitals that house seldom-used expensive equipment.
Government initiatives towards identification of survivors have resulted in confusion, corruption and utter discrimination. Consequently there are no credible official figures of the number of victims and the degree and extent of injury. Similarly lacking are systems to document the health status and treatment given to hundreds of thousands of survivors under long-term medical care.
Given the nature of chronic exposure-induced illnesses and the need for continuous medication, systematic efforts towards finding non-toxic drug alternatives or drug-free therapies is long overdue. Such initiatives are even more imperative in the context of the rich possibilities offered by long-established indigenous systems. However, systems of health care such as Ayurveda, Unani and Yoga that are known to provide sustained relief – without contributing to the toxic load – have been given only token recognition within the official system of medical care in Bhopal. The government budgetary allocation to “alternative” medical care is under 1 per cent.
Despite repeated advice from medical professionals, including the IMCB, a community health perspective has failed to inform health care delivery among the gas-affected population. Budgetary allocations to community health services have remained under 2 per cent. As a consequence, such vital areas as health education and community involvement in medical management remain neglected.
While the corporation continues to evade liability for contamination of community water sources, the government has done little to protect over 5000 people from additional exposure and injury. Both Union Carbide [now Dow] and the Indian government are in possession of information on the hazardous and persistent nature of these pollutants, yet no effort is being made to assess the damage, or plan for remediation.
The failure of Madhya Pradesh Government agencies(despite spending over US $43 million of public money) to offer sustained relief has meant big business for private doctors and nursing homes. In the severely affected areas, most of the meagre compensation has been spent on private doctors, nearly 70 per cent of whom are not even professionally qualified, yet they constitute the majority of the medical care providers.
The BMHT (originally set up by Union Carbide) has also been found to be prescribing drugs that do more harm than good. Dr. Rajiv Bhatia, Medical Director of the Department of Public Health in San Francisco, has audited over 400 prescriptions given to chronically ill patients in the Trust's community clinics with alarming conclusions.
It is indeed a shocking situation – people surviving against the most gruesome odds – a company carrying on with “business as usual" – a government that is about to close its files on the "expendable people" of Bhopal – and the prevalent system of health care most probably doing more harm than good.
(pervezbari@eth.net)