मुंशी प्रेमचंद की नजर में धर्म
आज जब चारों तरफ कट्टरता और धर्मांधता तेजी से बढती जा रही है, मुंषी प्रेमचंद के विचार उनकी रचनाओं की तरह ही और अधिक प्रासंगिक तथा महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। प्रेमचंद जब कहानी, उपन्यास, नाटक और दूसरी विधाओं में लिख रहे थे, देष अंग्रेजी दासता के खिलाफ एकजुट होकर लड़ रहा था। प्रेमचंद उस लड़ाई में बहुत से दूसरे लेखकों की भांति कलम को हथियार बनाकर लड़ रहे थे। उस समय देष के नेताओं की तरह लेखक भी स्वतंत्रता पश्चात के भारत का स्वप्न देखते हुए यह सोच रहे थे कि अंग्रेजों से स्वाधीनता हासिल करने के बावजूद देष को बहुत सी समस्याओं से जूझना है। उन समस्याओं पर अगर अभी से विचार नहीं किया गया तो स्वाधीनता के बाद वे और विकाराल हो जाएंगी और देष गर्त में चला जाएगा। अंग्रेजों ने भारतीय समाज के पारस्परिक सौहार्द वाले स्वरूप को हिंदू-मुस्लिम के बीच 'फूट डालो और राज करो' की नीति से पहले ही छिन्नभिन्न कर दिया था और उपर से भारतीय समाज की पहले से चली आ रही विभेदात्मक कुरीतियां उस ताने-बाने को और खत्म करने में लगीं थीं। इसलिए यह बहुत जरूरी था कि समाज को गहराई से षिक्षित किया जाए, जिससे आगे आने वाले समय की चुनौतियां का ठीक ढंग से मुकाबला किया जा सके। इसीलिए हम देखते हैं कि प्रेमचंद अपने समूचे साहित्य में लगातार समाज बदलने की बात कहते हैं और ऐसे पात्रों की रचना करते हैं जो भावी समाज के नायक हो सकते हैं।
मुंषी प्रेमचंद ने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए रचनात्मक लेखन के साथ पत्रकारिता भी की। उन्होंने स्वयं 'जागरण' जैसे अखबार निकाले और समय-समय पर राष्टीय, अंतर्राष्टीय विषयों पर संपादकीय और आलेख लिखे। अगर प्रेमचंद के इस प्रकार के लेखन का गहराई से विष्लेषण किया जाए तो आपको जानकर आष्चर्य होगा कि बहुत छोटी-छोटी घटनाओं पर भी उनकी नजर कितनी तेज होती थीं कि आज भी उनको पढ़ने पर समाज का आइना नजर आतीं हैं। आज हम देख रहे हैं कि हमारा सामाजिक तानाबाना किस कदर तितरबितर होता जा रहा है और धर्म, जाति, प्रदेष, भाषा और ना जाने कितने आधारों पर समाज विभाजित होता जा रहा है। ऐसे में हम जब प्रेमचंद के विचारों से गुजरते हैं तो हमें पता चलता है कि आजादी के बासठ साल गुजरने के बाद भी हम वहीं खड़े हैं, बल्कि यूं कहें कि प्रेमचंद के निधन के बहत्तर बरस बाद भी हालात वहीं के वहीं हैं। कितना दुख होता है ये सब देखकर।
अप्रेल, 1931 में 'स्वार्थांधता की पराकाष्ठा' शीर्षक अपनी एक टिप्पणी में प्रेमचंद ने एक घटना का उल्लेख किया है कि उत्तर प्रदेष के एक नगर में सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने के उद्देष्य से एक मुस्लिम गुंडा कुरान शरीफ का एक पृष्ठ फाड़कर उसमें विष्ठा भरकर मस्जिद में फेंकने का प्रयास करते हुए पकड़ा जाता है और लोग उसकी जमकर मरम्मत करते हैं। प्रेमचंद लिखते हैं, ' इससे पता चलता है कि धार्मिक आघात पहुंचाकर किस भांति हिंदू-मुस्लिम विरोध की आग भड़काई जा सकती है। यह तो कल्पना ही न की जा सकती थी कि किसी मुसलमान ने यह हरकत की होगी, हिंदू ही पर शुबहा होता और हिंदुओं से बदला लेने की चेष्टा की जाती। हम स्वार्थांध होकर इतने नीचे गिर सकते हैं!' अब आप आज के परिदृष्य पर नजर डालिए, इस प्रकार की कितनी घटनाएं हमारे सामने हैं? मालेगांव बम विस्फोट जैसी घटनाएं क्या 1931 से किसी प्रकार अलग हैं। आज हमारे समाज इस प्रकार के गुंडा तत्व किस कदर हावी हो गए हैं? प्रेमचंद ने उस समय जिस प्रकार एक घटना का प्रतिकार किया था, आज हमारे लोगों में उस प्रकार के साहस का घोर अभाव दिखाई देता है।
प्रेमचंद हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे और दोनों समुदायों के बीच फैली कई भ्रांतियों का उन्होंने अपने कई लेखों में निराकरण करने का प्रयास किया। उनका 'हिंदू-मुस्लिम एकता' शीर्षक लेख इस्लाम के प्रचार के कारणों की तथ्यात्मक पड़ताल करते हुए हिंदू धर्म के बीच फैली असंख्य विसंगतियों को इसका मूल मानता है। इस लेख में प्रेमचंद गोमांस भक्षण, षिखा-धारण, उर्दू-हिंदी विवाद, पोषाक का सांप्रदायिक विभाजन, जातिवाद, छूआछूत आदि तमाम समस्याओं पर विचार करते हैं। एक अन्य लेख में वे अंग्रेज सरकार की सांप्रदायिक नीतियों की जबर्दस्त खिलाफत करते हुए कहते हैं, 'हमें यह दिखाना है-कि तुम चाहे हमें कितने ही टुकड़ों में बांटो, हम परवाह नहीं करते। हम एक राष्ट हैं। इस भेद-नीति से हमारी राष्टीयता को कुचलना संभव नहीं है।'
प्रकृति में घटने वाली सामान्य प्राकृतिक घटनाओं जैसे सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण को लेकर आज भी भारतीय हिंदू समाज कितना अंधविष्वासी है, हम आए दिन देखते रहते हैं। प्रेमचंद ने 1933 में 'राहु के षिकार' एक संपादकीय टिप्पणी में इसका जबर्दस्त प्रतिकार किया है। व्यंग्य करते हुए वे लिखते हैं, 'साल में दो-चार बार सूर्य और चंद्र पर राहु के हमले होते हैं, पर जिन पर हमले होते हैं, उनका तो बाल भी बांका नहीं होता, हां, सौ दो सौ आदमियों पर उनका क्रोध उतर जाता है। जिस पेट में सूर्य और चंद्र को निगल जाने की शक्ति है... वह सौ दो सौ को ही निगलकर संतोष कर लेता है, यह उसकी भलमनसी है। ग्रहण स्नान और सोमवती स्नान और लाखों तरह के स्नानों की बला हिंदुस्तान के सिर से कभी टलेगी भी या नहीं, समझ में नहीं आता। आज भी संसार में ऐसे अंधविष्वास की गुंजाइष है तो भारत में।' प्रेमचंद की इस टिप्पणी को देखें और आज के हालात देखें, ऐसा नहीं लगता कि हम उसी युग में जी रहे हैं। ऐसे अंधविष्वासों से नतीजा क्या निकलता है, हम जानते हैं, लेकिन प्रेमचंद जो लिखते हैं, वह आज के समाज पर भी लागू होता है। 'लाखों आदमी अपनी गाढे पसीने की कमाई खर्च करे, धक्के खाकर, पशुओं की भांति रेल में लादे जाकर, रेले में जानें गंवाकर, नदी में डूबकर स्नान करते हैं केवल अंधविष्वास में पड़कर।'
अजमेर में महर्षि दयानंद के निर्वाण की अर्धषती का आयोजन होना था। उस अवसर पर किए जाने वाले बहुत सारे खर्चों को लेकर मुंषी प्रेमचंद ने बहुत तल्ख टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा, 'हमें ज्ञात हुआ है कि वहां हवन में दस हजार खर्च करने का निष्चय किया गया है। देष में जब ऐसी आर्थिक दषा फैली हुई है कि करोड़ों मनुष्यों को एक वक्त सूखा चना भी मयस्सर नहीं, दस हजार का घी और सुगंध जला डालना न धर्म है, न न्याय। हम तो कहेंगे, यह समाज के प्रति अपराध है। क्या इस रूपये का इससे अच्छा कोई खर्च न निकाला जा सकता था?... धार्मिकता भी खास हालात में आपत्तिजनक हो जाती है।' इतनी खरी बात कहने वाला हमें आज कहीं कोई लेखक या पत्रकार दूर-दूर तक नजर नहीं आता। दुर्भाग्य से प्रेमचंद जैसे साहसी लेखक और पत्रकार बहुत कम बचे हैं। और दूसरी तरफ हमारा समाज भी बहुत असहिष्णु हो गया है, वह न तो आलोचना बर्दाष्त करता है और न ही आलोचक। लेकिन समाज का हित इसी में है कि वह सुधार के ऐसे प्रस्तावों पर गहराई से विचार करे और आलोचना को प्रोत्साहन दे। एक समय था जब हिंदुओं के लिए विदेष यात्रा को पाप माना जाता था। इस किस्म के पाखण्डों के बारे में प्रेमचंद लिखते हैं, 'इसी पाखण्ड ने और इन्हीं पाखण्डियों ने भारत को चौपट किया और आज भी उनका वैसा ही पाखण्ड राज है।'
प्रेमचंद ने 'हिंदू समाज के वीभत्स दृष्य' शीर्षक से तीन लेखों की एक शृंखला लिखी थी। इस लेखमाला में उन्होंने सबसे पहले हिंदू समाज में शवदाह प्रथा को लेकर कई गंभीर सवाल किये हैं। वे पूछते हैं कि हिंदू समाज में लाषों की ऐसी दुर्गति क्यों होती है? ऐसा लगता है जैसे मरने वाले के साथ किसी का कोई रिष्ता ही नहीं बचा, सब जल्द से जल्द जलाने और मुर्दे को कसकर बांधके भाग ले जाने को तैयार रहते हैं। प्रेमचंद इसी के साथ मृत्यु के साथ किए जाने वाले तमाम कर्मकांडों की तीखी आलोचना करते हुए प्रस्तावित करते हैं कि इसमें बदलाव होना चाहिए, तभी हम मृतात्मा के प्रति सच्चे मन से अपनी श्रध्दा व्यक्त कर सकेंगे। दूसरे लेख में प्रेमचंद ढोंगी साधुओं पर प्रहार करते हैं। वे लिखते हैं कि जिस देष पर एक करोड़ मूसलचंदों के भरण-पोषण का भार हो, वह न कंगाल रहे तो दूसरा कौन रहे! इसी प्रकार प्रेमचंद तीसरे लेख में मंदिरों को लेकर चिंता प्रकट करते हैं। मंदिरों की आड़ में होने वाले विभिन्न किस्म के पाखण्डों, भ्रष्टाचार और तमाम बुराइयों की वे जबर्दस्त आलोचना करते हैं। वे लिखते हैं, 'देष की दषा को भली-भांति देखते हुए, धर्म के आडम्बरों, उसकी रूढ़ियों और राक्षसी नियमों से मुक्त करके ही वे अपना, अपने धर्म का, अपने समाज तथा अपने देष का सबसे बड़ा हित कर सकेंगे और जनता के दिलों में ऊंचा स्थान प्राप्त कर सकेंगे।'
मुंषी प्रेमचंद भारतीय समाज को एक ऐसे स्वस्थ लोकतांत्रिक राष्ट के रूप में देखना चाहते थे, जो तमाम किस्म के धार्मिक आडंबरों और रूढ़ियों से मुक्त हो, जहां धर्म या जाति के नाम पर कोई द्वेष न हो और सब लोग एक दूसरे के साथ खूब प्रेम से रहें। प्रेमचंद का स्वप्न अधूरा है और हमारा दायित्व है कि हर उसे हम प्रकार से पूरा करने का यत्न करें, क्योंकि ऐसा करके ही हम अपने होने को चरितार्थ कर सकेंगे।
- प्रेमचंद गांधी*
*लेखक देश के जाने-माने साहित्यकार है।
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