कथा अंगुलीमाल और गौतम बुध्द की
उस 'हृदय परिवर्तन' के पीछे चमत्कारिक शक्ति नहीं, शाक्यमुनि की मनोविश्लेषण की क्षमता थी। अंगुलीमाल नाम से जाने जानेवाले व्यक्ति ने पहले अपने जीवन में जो चाहा था, आज उसका ठीक उल्टा हो रहा है... अवश्य ही वह एक अस्थिर चित्त का व्यक्ति है। कुछ क्षणों के क्रोधावेश में सारा आपा खो बैठा और अपना पूरा जीवन
पलट लिया।
शाक्यमुनि गौतम अपने मत के प्रचार के लिए जिन दिनों कौशल राज्य की राजधानी श्रावस्ती में पहुंचे, अंगुलीमाल डाकू का आतंक जोरों पर था। वह जघन्य दस्यु पास के जालिनी जंगल में रहता था। उस नगर में पहुंचने पर शाक्यमुनि को पता चला कि डाकू बनने से पूर्व वह व्यक्ति समाज का एक सम्माननीय नागरिक था- राज दरबार से जुड़े एक परिवार का सदस्य होने के नाते। (यह तथ्य दो प्राचीनतम बौध्द ग्रंथों में उल्लेखित है।) उस घटना से वे भी परिचित हुए जिसके कारण वह व्यक्ति जंगल भागा और डाकू बना।
अपने लाड़ले पुत्र के साथ, जो सदा ही उसके साथ देखा जाता था, वह पड़ोस के किसी नगर में गया हुआ था। वहां इस बेटे को लेकर किसी से उसकी कहा-सुनी हो गई। बात बढ़ती गई और उसने क्रोधावेश में एक व्यक्ति की हत्या कर दी। मृतक यदि निम्न वर्ग का होता तो क्षतिपूर्ति के रूप में कुछ देकर निवारण किया जा सकता था। पर वह व्यक्ति एक प्रतिष्ठित परिवार का था और उसके संबंधी प्रतिशोध लेने पीछे-पीछे दौड़े आए। तब वह जंगल में जा छुपा। उस जंगल से वह सुपरिचित था। आखेट के लिए वहां प्राय: जाता ही था। उसको पकड़ने आने वाले अधिकांश उसे ढूंढ न पाए, जिन एक-दो ने उसे खोज भी लिया, उनसे वह ऐसे जुझारूपन से लड़ा कि वे भी अपनी जान खो बैठे। अब उसके नगर में लौटने की कोई संभावना न रही।
ऐेसे खूंखार डाकू बनने से पूर्व उस व्यक्ति का समाज में अन्य लोगों के प्रति कैसा आचरण था- यह जानकर शाक्यमुनि को विस्मय हुआ क्योंकि उसके स्वभाव के प्रशंसकों की कमी न थी। जिन लोगों से उसके मात्र औपचारिक संबंध थे- जो उससे तब त्यौहार, समारोहों मेें मिला करते थे, वे उसे एक हंसमुख, शालीन व्यक्ति के रूप में याद करते। उनके लिये यह सोचना कठिन था कि राह चलतों की हत्या करके उनकी उंगलियों की माला पहनने वाला दुष्ट वही है जिससे उनका परिचय था। कुछेक ऐसी घटनाएं सुनाते जब आड़े समय में वह उनकी मदद करने आया था।
उसके आस-पडास में रहने वाले, जिनका उससे दिन-प्रतिदिन का सम्पर्क था, उसके स्वभाव के सभी पक्षों से परिचित थे। उनके अनुसार वह मिलनसार और बातूनी था, पर साथ ही विवेकहीन और प्रचंड क्रोधी भी। एक छोटी सी निश्छल बात पर भी यदि उसे लगता कोई उसका अपमान कर रहा है तो रौद्र रूप आने में देर न लगती और एक बार हत्थे से उखड़ जाए तो मत पूछो भाई... हम लोग जानते थे, पर दूसरे स्थान के लोग क्या जानें...
उसकी अहंमन्यता के भी कई किस्से सुनने में आए, किसी भी त्यौहार-पर्व पर उसकी भरसक कोशिश रहती कि उसका घर ही सबसे अधिक सजा दिखे। यदि अन्य दावतों में पांच पकवान परोसे जाते तो यह निश्चित था कि वह छ:-सात की व्यवस्था करेगा, भले ही घर के अन्य जरूरी खर्चों के लिए पैसा न बचें। बाद में मित्रों से कहता- देखो, हुई न मेरी धाक, दूसरों को भेंट देने में भी वह किसी से पीछे न रहना चाहता। कुछ ऐसे व्यवहार को उसकी विशाल हृदयता कहते तो कुछ इसे मात्र दिखावा और आडम्बर समझते। पर सभी मानते कि उनमें होड़ की भावना कूट-कूट कर भरी थी। उसकी ओर उसके परिवार के लोग मान भरी ऊंची दृष्टि से देखें, इस बात के प्रति वह सर्वदा सचेत था और अब उस परिवार की दशा अत्यन्त दयनीय थी। जब से वह जंगल में आकर डाकू बना, परिवार के शेष सदस्यों को समाज में मुंह छुपाने को स्थान न मिल रहा था। दिन के उजाले में उन लोगों का घर से निकलना दूभर था। उसका चहेता बेटा निपट अनाथ, अनाश्रय हो गया था- न पिता, न कोई संगी-साथी।
कैसी विडम्बना है? शाक्यमुनि ने सोचा, जब अंगुलीमाल नाम से प्रसिध्द व्यक्ति ने पहले अपने जीवन में जो चाहा था, आज उसका ठीक उल्टा हो रहा है... अवश्य ही वह एक अस्थिर चित्त का व्यक्ति है, कुछ क्षणों के क्रोधावेश में सारा आपा खो बैठा और अपना पूरा जीवन पलट लिया। उन्होंने यह भी सोचा कि बहुत संभव है अब उसके मन में भारी पछतावा हो। ऐसा संगति-प्रिय व्यक्ति घर-परिवार, मित्रों की याद में छटपटाता हो तो आश्चर्य नहीं, पर समाज में लौटने के सभी द्वार बन्द कर चुका है वह। लेकिन निर्दोषों का वध करके उनकी अंगुलियों की माला बनाकर पहनने की अधम प्रवृत्ति क्यों? शाक्यमुनि ने इस विषय पर मनन किया तो पाया कि इस व्यवहार में उसका अहम् भी है और कुंठा भी। अपने प्रियजनों से दूर, जंगल के कटघरे में बन्द, अब यदि वह उदारमना बनकर समाज में धाक नहीं जमा सकता तो आतंक द्वारा ही सही।
जब उसने यह जान लिया है कि वह समाज से बहिष्कृत हो चुका है, एक पक्का हत्यारा डाकू माना जा चुका है, तो उसने चाहा कि उसे ऐसा-वैसा डाकू न समझा जाए। वह डाकू भी होगा तो असाधारण। समाज को उसका लोहा मानना ही पडेग़ा। कितने लोग उसे पकड़ने या मारने आ चुके हैं पर क्या कोई कुछ कर पाया उसका? जितने अधिक लोग असफल हो, स्वयं उसके हाथों अपने प्राण खोएं, उतनी ही अधिक उसकी शूर वीरता है। कोई गिनती न भूले, इसलिए हर हत्या के बाद मृतक की एक उंगली काटकर, वह उन्हें पदकों की तरह पहनने लगा और एक माला बन गई। यदि वह किसी मनुष्य को अपने आसपास देखता तो उसे लगता कि यह आदमी मुझे मारने आया है और स्वयं ही धावा बोल देता। जान गंवाने वालों में अधिकांश व्यक्ति भूले भटके पथिक होते जो दुर्भाग्य से उसके समीप से गुजर रहे होते। शाक्यमुनि ने लोगों से सुना कि अंगुलीमाल प्राय: ही बड़बड़ाता रहता है- वह अब केवल अपने आप से ही बात कर सकता था और उसके स्वर में कभी हेकड़ी और क्रोध होता तो कभी रूंआसापन। इसमें उन्हें उस मनोविश्लेषण की पुष्टि मिली जो डाकू के स्वभाव के बारे में वे कर चुके थे। उन्होंने उससे मिलने का निर्णय लिया। जंगल में उस भाग में जहां अंगुलीमाल के मिलने की संभावना थी, उन्होंने उसे उस नाम से पुकारा जिससे उसके परिवार वाले उसे बुलाते थे। साथ ही वे उसके चहेते बेटे आदि का नाम लेकर कहते जाते- सुनो तुम्हें उनकी कुछ चिन्ता भी है या नहीं? तुम्हारे बिना उनकी कैसी दुर्दशा हो रही है... अंगुलीमाल ने जब एक अपरिचित मानव स्वर से अपने प्रियजनों का नाम सुना तो अचम्भित रह गया। स्वर समीप आता जाता था। कुछ समय बाद उसने सामने चादर ओढे एक निहत्था अनजाना व्यक्ति देखा तो आश्चर्य और बढ़ा। (जंगल से निकलने वाला हर कोई कम से कम एक लाठी तो हाथ में लेकर चलता ही था।) शाक्यमुनि ने पुन: परिवार-सम्बन्धी प्रश्न दुहराए। अंगुलीमाल अवाक् ठिठका खड़ा रहा कुछ देर तक। दृश्य अविश्वसनीय था। कोई अपरिचित जंगल में आकर, उसके भय से थर-थर कांपे बिना, सहज शांत स्वर में उससे घर-परिवार के बारे में पूछेगा- बताएगा, ऐसा उसने सपने में भी न सोचा था। पीछे छूटा परिवार उसकी दुखती रग थी। उनकी दशा के बारे में सोच-सोच कर, उसके अंतरतम में एक स्थायी घाव सा हो गया था जो सदा रिसता रहता। शाक्यमुनि उसे चिर-आत्मीय लगे- एक हितैषी देवदूत से। उसका फरसा हाथ से छूट गया। वह फफक-फफक कर रोने लगा। गिर पड़ा उनके पैरों पर। शाक्यमुनि के पीछे-पीछे रोता सुबकता अंगुलमाल जब नगर में आया तो लोगों को पहले पहल अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ। फिर इस घटना की खबर पूरे समाज में जंगल की आग की तरह फैली। जो अंगुलीमाल नाम से परिचित थे वे तो जाने ही, जिन्होंने पहले उसका नाम न सुना था, उन तक भी यह अद्भुत समाचार पहुंचा। इस घटना से सभी को लाभ हुआ- अंगुलीमाल ने यह आशा कभी की छोड़ रखी थी कि वह अब समाज में लौट सकेगा। अपने परिवार वालों के मुख देख सकेगा। कुछ दिनों बाद सहमे सकुचाए वे उससे मिलने आए। अंगुलीमाल वापस घर कभी न जा सका।
अजय कुलश्रेष्ठ
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